Thursday, October 28, 2010

दो साल बाद खोलूंगा राजनीति के पत्ते: रामदेव

मुझे सत्ता व सिंहासन नहीं दे सकता है यह मुकाम



योग का राष्ट्रधर्म के साथ तालमेल बनाते हुए देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए राजनीति का सहारा लेना होगा। वर्तमान सरकारें भ्रष्टाचार रोकने में असमर्थ हो रही हैं, अगर यही हाल रहा तो दो साल बाद राजनीति में आने के लिए पत्ते खोल दूंगा।
गुरुवार को योगर्षि स्वामी रामदेव  वानिकी प्रशिक्षण संस्थान में पत्रकारों से वार्ता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि सत्ता और सिंहासन उन्हें वो कुछ भी नहीं दे सकता है, जो उन्हें अभी  हासिल है। उनका उद्देश्य देश को भ्रष्ट, बेईमान, कायर, कमजोर, शक्तिहीन एवं मूर्ख लोगों से बचाना है। ऐसे लोगों केहाथों देश की सत्ता को जाने से रोकना है। पानी की तरह ऊपर से नीचे बह रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए राजनीति दलों से बातचीत हुई। इसमें एक दल ने तो इस मुहिम में शामिल होने से मना कर दिया। दूसरे दल ने 60 से 70 प्रतिशत तक शुद्धि किये जाने पर सहमति जतायी। तीसरे दल ने पूरी तरह साथ चलने की बात कही है। अगर यह दल चारत्रिक, आपराधिक छवि वाले नेताओं को उम्मीदवार नही बनायेंगे तो आगे देखा जा सकता है। इसमें उनकी भूमिका केवल गुरु की तरह होगी। उन्होंने कहा कि बड़ी करेंसी बंद होनी चाहिये। अगर विकसित देश बड़ी करेंसी नहीं छापते हैं तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इस बात को स्वीकार किया है। केन्द्र सरकार बेईमान है, इसलिए वह कानून नहीं बना रही है। एक सवाल के जवाब में स्वामी रामदेव ने कहा कि महर्षि महेश योगी के नाम से लोग परिचित नहीं थे लेकिन देश में अंतिम व्यक्ति से खास व्यक्ति भले ही उनका नाम नहीं जानता हो लेकिन उनके ध्येय से परिचित है। देश के 624 जिलों में 15 संगठन क्रियाशील हैं। उन्होंने कहा कि जो भी देश में रहकर देशद्रोह की बात करता है तो उसमें समझौता नहीं करना चाहिये। उन्होंने कहा कि गंगा की धारा अविरल बहनी चाहिये लेकिन विकास भी होना चाहिये। वे छोटे बांध बनाने के पक्षधर हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार विकास के कार्य कर रही है, इसकी गति और तेज होनी चाहिये। स्वामी रामदेव ने पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने विकास के द्वार खोले थे, उन्होंने उनके मिशन में किसी तरह का अवरोध डालने का प्रयास नहीं किया।

Thursday, October 21, 2010

नेपोलियन बोनापार्ट का प्रेम पत्र...

नेपोलियन बोनापार्ट का पत्र जोसेफिन के नाम
1796

  डियर डार्लिंग,
      मैंने एक भी दिन तुम्हें प्यार किए बगैर नहीं गुजारा है। मैंने एक भी रात तुम्हें आलिंगन में लिए बगैर नहीं बिताई है। मैंने एक कप चाय तक उस गर्व और महत्वाकांक्षा को कोसे बगैर नहीं पी है, जिसने मुझे मेरी जिन्दगी की रूह से दूर रखा है। अपने कर्तव्य के निर्वाह के दौरान भी, चाहे मैं सेना का नेतृत्व कर रहा होऊं या शिविरों का मुआयना कर रहा होऊं, मैं अपनी प्यारी जोसेफिन को अपने दिल में अकेली खड़ा पाता हूं। मेरे मस्तिष्क और विचारों में उसी का प्रतिबिम्ब रहता है।
 अगर मैं तूफानी गति से तुमसे दूर जा रहा हूं, तो इसका लक्ष्य यही है कि मैं जल्दी से जल्दी तुम्हारे करीब आ सकूं। अगर मैं आधी रात को भी उठकर काम में जुट जाता हूं तो सिर्फ इसलिए कि मेरा प्रेम और जल्दी मेरे पास लौट सके और फिर भी तेईस और छब्बीस तारीख के अपने पत्रों में तुमने मुझे निष्ठुर कहा है। निष्ठुर तो तुम खुद हो। आह! इतना ठंडा खत तुमने क्यों लिखा? और फिर तेईस और छब्बीस के बीच में चार दिन और भी तो थे, तुम ऐसा क्या कर रही थीं कि अपने पति को पत्र लिखना ही भूल गईं!...आह! मेरे प्रेम, निष्ठुर प्रेम, ये चार दिन मुझे पहले-सा बेफिक्र बन जाने के लिए उकसा रहे हैं, तब जब मैं अपने आप में मस्त रहता था। मेरा कौन सा दुश्मन जिम्मेदार है इसके लिए? सजा और हर्जाने के तौर पर तुम्हें भी इन्हीं भावनाओं में से गुजरना होगा जिनमें से मैं गुजरा हूं। इससे ज्यादा तीखी यातना और क्या होगी? हमसे ज्यादा भयानक स्वप्न और क्या होगा?
  निष्ठुर! निष्ठुर! और दो हफ्ते बाद हालात कैसे होंगे?...मेरी आत्मा बोझिल है, मेरा दिल कसमसा रहा है, और मैं अपनी कल्पनाओं से डरा हुआ हूं। तुम मुझे उतना प्रेम नहीं करती, तुम मेरी कमी के एहसास को बर्दाश्त कर जाओगी। फिर एक दिन तुम्हारे मन में मेरे लिए जरा भी प्यार नहीं रह जाएगा। कम से कम मुझे बता तो दो, मैं ऐसे दुर्भाग्य के क्यों कर योग्य हूं?...विदा, मेरी जीवन संगिनी, मेरी यातना, मेरा आनंद, मेरी उम्मीद, मेरी जिन्दगी की आत्मा- जिसे मैं प्यार करता हूं, और जिससे मैं डरता हूं- जो मेरे मन में इतनी कोमल भावनाएं भर देती हैं कि मैं शांत प्रकृति के एक हिस्से को किस तरह महसूस करता हूं- और इतना हिंसक आवेग भी कि मैं किसी तूफान की तरह महसूस करता हूं।
  मैं तुमसे न तो चिरंतन प्रेम की चाह रखता हूं, न वफादारी की, सिर्फ सत्य की, ईमानदारी की चाह रखता हूं। जिस दिन तुम कहोगी, 'मैं तुमसे कम प्रेम करती हूं, वह मेरे प्रेम का और जीवन का आखिरी दिन होगा। अगर मेरा दिल ऐसा दिल हुआ कि बिना तुम्हारा प्रेम पाए भी तुमसे प्रेम करता रहे, तो मैं इसे चीरकर रख दूंगा। जोसेफिन! जोसेफिन! याद रखो मैंने कई बार तुमसे क्या कहा है- प्रकृति ने मुझे एक पुंसत्वपूर्ण और निर्णायक चरित्र दिया है जबकि तुम्हारा चरित्र उसने रेशम और मखमल से बुना है। क्या तुमने मुझसे प्रेम करना छोड़ दिया है? मुझे क्षमा करना, मेरे प्यार, मेरी जिन्दगी के प्यार, मेरी आत्मा कई द्वंद्वों से संघर्ष कर रही है।
 मेरा दिल, जो तुम्हारे प्रति मेरे ईष्र्यालु प्रेम से सराबोर है, कई बार मुझे विचित्र भयों से भर देता है, और मैं बहुत दुखी हो जाता हूं। मैं इतना हताश हूं कि मैं तुम्हारा नाम भी पुकारना नहीं चाहूंगा, मैं तुम्हारे हाथ से लिखा पत्र देखने की प्रतीक्षा करूंगा।
  विदा! आह! अगर तुम मुझसे कम प्रेम करती हो तो इसका मतलब है कि तुमने मुझसे कभी प्रेम किया ही नहीं था। फिर तो मेरी हालत सचमुच बहुत दयनीय हो जाएगी।
                                                                                                                                        बोनापार्ट

Monday, October 18, 2010

पुतला तो जल गया मगर कलयुगी रावण...

कागज के पुतले को जला देने से भर से कलयुग का रावण नहीं जल सकता है। केवल रस्म अदायगी ही हो सकती है। इतने से ही कैसे काम चलेगा? कुछ समझ में नहीं आता है। घोर कलयुग में जहां पर नजर दौड़ायें दशानन ही नहीं बल्कि हजारों सिर लिए हुए रावण ही रावण नजर आते हैं। जहां हाहाकार मचा हुआ है। घोर मानसिक कष्ट है। अवसाद है। भुखमरी है। गरीबी है। उत्पीडऩ है। छटपटाहट है। द्वेष है। चीख-पुकार मची है, कहीं बलात्कार, कहीं चोरी, कहीं हत्या, कहीं गंदगी, कहीं निरक्षरता, कहीं बेरोजगारी, कहीं भ्रष्टाचार और कहीं बीमारी की। इसके लिए दोषी कौन है, जो सिंहासन पर बैठा है। अगर वहीं रावण है तो निश्चित ही चारों ओर राक्षस ही राक्षस होंगे। इस स्थिति में जनता निर्भय होकर कैसे रह सकेगी? हम आप सब समझ रहे होंगे। हम तो एक दिन विजयदशमी पर्व पर रावण का पुतला बना देते हैं, और जला देते हैं। असत्य पर सत्य की जीत का जश्न मना लेते हैं। भाषण भी होते हैं, कहा जाता है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों पर हम सभी को चलना होगा। उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेनी होगी। लेकिन वास्तविकता कुछ और होती है, जो उपदेश दे रहे होते हैं, समाज के सबसे अधिक पतित वहीं नजर आते हैं जो केवल भ्रम पैदा कर अपना मतलब निकालकर आगे निकल जाते हैं। भले ही पीछे जनता जी रही हो या मर रही हो। इसकी कोई परवाह नहीं। असली मुद्दा तो यह है कि हमारे भीतर रावण के पुतले को जलाने की समझ कब विकसित होगी? समाज में शौर्य प्रकट करता रावण पर श्रीराम की जीत के जश्न का आधार कैसे तय होगा? प्रकांड विद्वान रावण के अहंकार के आगे कलयुग के राक्षसों (माफियाओं) द्वारा गरीब के धन से बनाये गये ऊंचे व चौड़े पुतले के जलने की औपचारिकता कब तक निभायी जाती रहेगी? भारतीय संस्कृति व लोकतंत्र के ध्वजवाहकों के साथ हो रहे अमानवीय अत्याचार के खिलाफ लडऩे के लिए भगवान श्रीराम कब अवतार लेंगे? त्रेता युग के राम ने जिस तरह रावण पर विजय प्राप्त कर आज तक प्रेरणा का स्रोत बने रहे, लेकिन इस कलयुग में कौन होगा प्रेरणास्रोत जो घर-घर में सिर उठा रहे रावण नहीं रावणों का अंत करेगा। ताकि फिर त्रेता युग की तरह कलयुग में भी विजयोल्लास मनाया जा सकेगा।