Monday, September 12, 2011

अन्नागीरी और साहित्यिक शून्यता

 
रघुवीर चौहान
पूरे 12 दिन, 288 घंटे। 74 साल के बूढ़े आंदोलनकारी का गांधीवादी आंदोलन। देशभर में 
गांधीवादी हजारे की अन्नागीरी। जनपद के जनपद अन्नामय हो गए। गांव, गली, मोहल्ले, हर 
तरफ बस अन्ना ही अन्ना। अपने पहाड़ की कुमाऊंनी धरती पर भी लहराते तिरंगे, 'मैं अन्ना 
हूंÓ की टोपियों से ढके सिर दिखाई देते रहे।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन, धीरे-धीरे समय बढ़ता गया, लोग जुड़ते गए, कारवां दिनोदिन 
बड़ा होता गया। रिंकू, टिंकू, सोनू, मोनू पढ़ाई छोड़ 'एक-दो-तीन-चार, बंद करो ये 
भ्रष्टाचारÓ के नारे लगाने लगे तो गुरुजी, मास्साब अपने स्तर के गंभीर नारों को आवा$ज देने 
लगे। इंसा$फ दिलाने वाले वकील साहब, जीवनदाता डॉक्टर साहब मैदान में कूद पड़े तो लायंस 
जैसे संभ्रांतजनों की संस्थाएं भी इस यज्ञ में आहुति देने को पहुंच गईं। व्यापारियों ने एक दिन 
को कारोबार को तिलांजलि दे दी। अपने कुमाऊं में तो बिजली कर्मी भी यही गाते सुनाई 
दिए- 'मिले सुर मेरा-तुम्हारा तो सुर बने हमारा।Ó
मगर एक बड़ा ताज्जुब। पूरे आंदोलन में साहित्य जगत में सन्नाटा रहा, घुप्प अंधेरा रहा। समाज 
के दर्पण-साहित्य के सर्जकों में शून्यता दिखाई दी। कुमाऊं को साहित्य भूमि कहा जाता रहा 
है। साहित्य नगरी अल्मोड़ा से भी कोई आवा$ज नहीं उठी। मंडल के अन्य पांच $िजलों- 
नैनीताल, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, ऊधमसिंह नगर, यानी सभी जगहों के साहित्यकार, 
कवि, शायर शांत रहे। छोटी से छोटी काव्यगोष्ठी और बड़े से बड़े कवि सम्मेलन, मुशायरों में 
राजनीतिज्ञों के दिल को भेद डालने वाले तीरंदा$जों के तरकश तीरविहीन न$जर आए।
वैसे यह साहित्यिक शून्यता राष्ट्रीय स्तर पर रही। कुमार विश्वास ने कवियों को तो 
आलोचना का भागी बनने से बचा लिया, मगर साहित्यकारों, शायरों में तो कोई हिम्मत नहीं 
दिखा पाया।
इतिहास के पन्नों में तो हमने यही पढ़ा कि जंग-ए-आ$जादी में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका 
रही। उन्होंने अपने $फन से लोगों को जोड़ दिया, मगर आ$जादी की इस दूसरी 
लड़ाई-भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में उनके वंशजों में वह चेतना, वह जागरूकता गायब-सी लगती 
है। आंदोलन निपट गया। उम्मीद पर दुनिया $कायम है। सो हम भी उम्मीद करते हैं कि शायद 
वे अब इस पर मंथन करने को समय निकाल लें।

अन्ना का आंदोलन निस्संदेह सराहनीय है, मगर मीडिया ने जिस तरह उनको दूसरे गांधी के 
खिताब से नवा$जा, मुझे लगता है कि वह अतिश्योक्ति है। गांधी के $जमाने में मूल्य आधारित 
आंदोलन होते थे, मगर अब तो वे मूल्य रहे नहीं। अब तो भेड़ चाल है। इस आंदोलन में ही 
नौजवानों का राजनीतिक दलों ने जमकर इस्तेमाल किया। नेट पर अश्लील भाषा का ख़्ाूब 
प्रयोग किया गया, जिससे लगता है कि कहीं यह आंदोलन उच्छृंखल न हो जाए।
- प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोहीÓ
निदेशक, महादेवी वर्मा सृजन पीठ