Sunday, December 2, 2012

मानसिक स्तर पर सोचा, बजा दी ताली...



जब पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है तो लाचार पुलिस को डंडे को हवा में घुमाने के लिए भी जगह नहीं मिल पाती है। कुछ जेब गर्म हो जाए, उसी में ही संतुष्ट होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है।

पत्रकारिता के पेशे से ही हम अपनी बात करते हैं। बड़ी शर्मनाक स्थिति है। कभी-कभी बड़ी कोफ्त होती है। हम क्या लिखते हैं और लोगों को क्या पढऩे को मजबूर करते हैं, अगर गौर से देखें तो स्वयं पर भी हंसी आ जाती है। कई देशों में विकास के लिए विजन पर आधारित समाचार होते हैं। नए अनुसंधान होते हैं। ज्ञान व विज्ञान पर आधारित गूढ़ रहस्य होते हैं। तमाम ऐसे रहस्य होते हैं, जो जीवन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। सामान्य जीवन की उलझनों से ऊपर उठकर दर्शन व मनोविज्ञान पर सोचने का व्यापक दायरा होता है।
हम भारत के छोटे शहरों की चर्चा करें तो प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले समाचार और समाचारों पर चर्चा, बड़ी अजीबोगरीब स्थिति की होती है। व्यापारियों ने सड़के के किनारे नालियों के ऊपर कब्जा किया फिर आधे सड़क तक सामान बिखेर दिया। अगर मौका मिले तो ठेला आगे लगवा दिया, जिससे कुछ पैसे भी मिल जाते हैं। इसकी वजह से शहर की यातायात व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो जाती है। इसमें नगर निगम से लेकर प्रशासनिक अधिकारी भी लाचार दिखते हैं। शॉपिंग कांम्लैक्स, मॉल, शोरूम, स्कूल, कालेज, अस्पताल, होटल, रेस्तरां व बड़े भवनों को सड़क के किनारे बिना पार्किंग की व्यवस्था किए ही लेन-देन कर अनुमति दे दी जाती है। जनप्रतिनिधियों की विकास की सोच कहीं नहीं झलकती है। जब पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है तो लाचार पुलिस को डंडे को हवा में घुमाने के लिए भी जगह नहीं मिल पाती है। कुछ जेब गर्म हो जाए, उसी में ही संतुष्ट होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। अनियोजित विकास से पटे छोटे शहरों की दुर्दशा के आगे पूरा तंत्र बेबस बना हुआ है। जिसका शिकार बेचारा आम आदमी हो जाता है, जिसे सिविक सेंस का पाठ पढ़ाने की बात केवल उपदेश तक सीमित रहती है। कूड़ा जहां मन करे वहां फैंक दिया जाता है। भूल जाते हैं कि इस कूड़े का भयानक परिणाम हो सकते हैं। तमाम बीमारियां इससे हो सकती हैं। फिर भी... हमारा देश महान है। इसे विश्व गुरु फिर से बनाया जाना है। कभी यह सोने की चिडिय़ा हुआ करता था, आज भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। फिर भी नेता, समाज सेवक, अध्यात्मिक गुरु, दर्शनशास्त्री, विचारक, चिंतक, प्रोफेसर ऐसे भाषण देते हैं कि कुछ हो न हो, बेहतर भारत की तस्वीर को केवल मानसिक स्तर पर सोचकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

Saturday, November 10, 2012

मिठाई जरूरी भी मजबूरी भी



                
मिठाई
               अगर आप मिठाई की दुकान चलाना चाहते हैं तो सावधान। मिठाई बनाना तो आसान हो सकता है लेकिन बेचना बहुत मुश्किल हो जाएगा। आप शुद्ध मिठाई बेचेंगे तो कम समय से अधिक पैसा कमाने की चिंता या फिर मिलावटी बेचेंगे तो कम समय में सेठ बनने की महत्वाकांक्षा। आखिर बड़ी मुश्किल लेकिन कुछ शातिर किस्म के लोग व्यवस्था की 'आंखो' में धूल झोंककर काम को आसान भी बना देते हैं।
आइए जानते हैं, कैसे बनेंगे आप मिठाई वाले। सबसे पहले दुकान लेनी होगी। लाइसेंस लेना होगा। इसके लिए खाद्य सुरक्षा अधिकारी की खुशामद करनी होगी। फिर बाट-मांप विभाग की ओर से तराजू व बांट के लिए प्रमाण पत्र लेने की झिकझिक होगी। सेल टेक्स व इनकम टेक्स विभाग का भी विशेष ध्यान रखना होगा। संबंधित चौकी से जुड़े पुलिस कर्मियों को भी मीठा सलाम करना होगा। प्रशासनिक अधिकारियों का भी समय-समय पर मुंह मीठा करना होगा। माफिया, गुंडों व अराजक तत्वों के आक्रोश को शांत करने के लिए मिठाई का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष उपयोग करना होगा। इसके अलावा समाज के कथित समाजसेवी भी पता नहीं कब सूचना अधिकार के तहत सेल-परचेज की सूचना मांग लेंगे। इसके लिए भी मीठा-मीठा जपना होगा। छुटभैये नेता अगर किसी के गले में माला डाल दी जाए तो वहां भी मिठाई पहुंचानी पड़ेगी। यह सब जरूरी- मजबूरी है, इसके अलावा मांगने वाले भी कम नहीं। कभी देवी के लिए तो कभी देवता के लिए मांगने वाले पहुंच जायेंगे। कभी तो स्वयं ही दान करना होगा। अगर यह सब करने की कला में माहिर हो तो मिठाई की दुकान खोल लीजिए। इस स्थिति में मिठाई की दुकान वाले भी जांच करने वालों को ही मिलावटी मिठाई का स्वाद चखा देते हैं। फिर भी कभी-कभार अखबारों में खबर छप जाती है तो खाद्य सुरक्षा अधिकारी सेंपल लेने के बहाने पहुंच जाते हैं। सेंपल लेते तो हैं, अगर सेटिंग हो गई तो ठीक है, उसे लैब तक भी सेट कर लेंगे, सेटिंग नहीं हुई तो जांच चलती रहेगी। दीपावली का त्योहार है, मिठाई खानी नहीं भी है तो भेंट तो करनी ही है। इसलिए खरीदनी भी जरूरी है। मां लक्ष्मी से यही निवेदन करते हैं कि मिठाई वाला जो भी बने, ऐसी मिठाई न खानी पड़े जिससे मुंह मीठा हो या न हो शरीर का हाल बेहाल हो जाए। डाक्टर की मानें तो मिलावटी मिठाई खाने से लीवर तक खराब हो जाएगा। इसलिए धन की देवी लक्ष्मी से अनुरोध करते हैं कि जो भी मिठाई की दुकान खोलेगा उसे सद्बुद्धि तो दें ही, इससे पहले ऐसे भ्रष्ट व्यवस्था के लिए जिम्मेदार को कंगाल बनाकर हमें निजात दिला दे।

Thursday, November 8, 2012

अगर कही कमजोर पड़ गए तो नोच डालेंगे...



उत्तराखंड को बने हुए आज १२ साल पूरे हो गए. ६ सीएम् बन गए. दोनों दलो की सरकार भी बन गई.  क्या मिला उत्तराखंड को?  निराशा, हताशा, और बेवफाई.   नेता, अधिकारी, कुछ कर्मचारी, भू माफिया, शराब माफिया, दलाल, चापलूस, कथित पत्रकारों ने राज्य के हितो  को ठेंगे पर रखकर जमकर लूट लिया.  मूलभूत जरुरते आज भी पूरी नहीं हो सकी. पहाड़ तो अब पहले से वीरान हो गए.  विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ उसमे भी पूरी तरह भ्रस्ताचार की बू.  १३ जनपदों वाले छोटे से राज्य  की इस दुर्दशा के लिए आखिर कोन जिमेदार है. हम या आप. किसी भी सरकारी विभाग से होकर  अगर सचिवालय तक जाओ,  पसीने छूट जायेंगे.  अगर आपकी जेब में इतना धन नहीं है की जगह जगह बैठे  'भिकारियो' को दे सको तो समझो की  कोई काम नहीं होगा.  अगर  कही कमजोर पड़ गए तो नोच डालेंगे.  एसे लोगो के लिए गलत काम अब स्वीकार हो गया है. नियम कमजोर, शोसितो, पीडितो और वंचितों  के लिए रह जाते  है.  शर्मनाक हालात है.  मुझे तो सिर्फ इतना लगता है की इस घोर निराशा में उम्मीद की किरण अगर बची है तो सभी एक जैसे हो जाये, या फिर एक दूसरे को नोच दे, नक्सलवाद और मावोवाद के  नाम पर एसे लोगो को अपना शिकार बना दे जिन्होंने राज्य की एसी दुर्दशा करने का माहौल पैदा किया. अब हम भी इस भ्रस्ट व्यवस्था को नमन करते हुए आज के दिन की शुरुवात करते है.  जय उत्तराखंड जय भारत.

Saturday, October 13, 2012

संघर्षों से निकले जनकथाकार मटियानी

 अत्यंत निर्धन परिवार में जन्मे शैलेश ने अल्मोड़ा में बूचड़खाने तक में कार्य करने को विवश होना पड़ा। इसके बाद दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद में संघर्ष करते रहे। बचपन से ही लेखक बनने की चिनगारी तमाम विपदाओं में भी जलती रही।


बचपन से ही लेखक बनने की प्रबल इच्छा रखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी को गोर्की के समकक्ष व प्रेमचन्द्र से आगे का साहित्यकार किसी ने यों ही नहीं कहा है। उन्होंने कठिन संघर्षों में जीवन व्यतीत करते हुए समाज के दबे, कुचले, भूखे, नंगों पर मार्मिकता से यथार्थ चित्रण किया। हिंदी साहित्य में आंचलिक कथाकार के रूप में ख्याति अर्जित की।
 उन्होंने जीवनपर्यंत ऐसी कलम चलाई की आम आदमी की पीड़ा का जीवंत चित्रण कर दिया। उनकी 30 से अधिक उपन्यास, कहानियां, लेख हैं। अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछीना में 14 अक्टूबर 1931 को जन्मे शैलेश मटियानी ने हाईस्कूल तक पढ़ाई की और पचास वर्ष तक लेखन कार्य में सक्रिय रहे। माता-पिता का देहांत 12 वर्ष की उम्र में हो गया था। वह उस समय पांचवी कक्षा में पढ़ते थे। अत्यंत निर्धन परिवार में जन्मे शैलेश  को बचपन से ही तमाम विपदाए को झेलने को मजबूर होना पड़ा. अल्मोड़ा में बूचड़खाने तक में कार्य करने को विवश होना पड़ा। इसके बाद दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद में संघर्ष करते रहे। बचपन से ही लेखक बनने की चिनगारी तमाम विपदाओं में भी जलती रही। उनकी रचनाओं में उपेक्षित, बेसहारा लोग कहानी के पात्र हैं। दलित जीवन को भी व्यापकता से उभारा है। उनके कहानी व पात्रों के नाम भी गोपुली, नैन सिंह सुबेदार, सावित्री, गफूरन आदि हैं। रचनाओं में गहरी मानवीय संवेदनाएं हैं। साहित्यकार को कुमाऊं विश्वविद्यालय ने 1994 डीलिट् की मानद उपाधि से नवाजा था।  देहावसान २४ अप्रैल २००१ को हुआ.
उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का संस्थागत सम्मान शारदा सम्मान, केडिया संस्थान से साधना सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार से लोहिया पुरस्कार से नवाजा गया है। साथ ही उनके लेखन पर भी शोध हो चुका है। उन्होंने जनपक्ष, विकल्प पत्रिकाओं का भी संपादन किया।
साहित्यकार दिनेश कर्नाटक कहते हैं कि वह पहले ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने पर्वत, झरने, नदियों के अलावा पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों की पीड़ा को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया। उनका साहित्य के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान है। मटियानी हिंदी साहित्य में आंचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं।
ये हैं उपन्यास
उगते सूरज की किरन, पुनर्जन्म के बाद, भागे हुए लोग, डेरे वाले, हौलदार, माया सरोवर, उत्तरकांड, रामकली, मुठभेड़, चन्द औरतों का शहर, आकाश कितना अनन्त है, बर्फ गिर चुकने के बाद, सूर्यास्त कोसी, नाग वल्लरी, बोरीवली से बोरीबंदर तक, अर्धकुम्भ की यात्रा, गापुली गफूरन आदि उपन्यास हैं।
कहानी संग्रह
पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियां, सुहागिनी तथा अन्य कहानियां, अतीत तथा अन्य कहानियां, हारा हुआ, सफर घर जाने से पहले, छिंदा पहलवान वाली गली, भेड़े और गड़रिये, तीसरा सुख, बर्फ की चट्टानें, अहिंसा तथा अन्य कहानियां, नाच जमूरे नाच, माता तथा अन्य कहानियां, उत्सव के बाद, शैलेश मटियानी की प्रतिनिधि कहानियां आदि। तमाम लेखों का संग्रह व बाल साहित्य की रचनाएं भी है।

Monday, October 8, 2012

कुमाऊंनी रामलीला में परंपरा की मर्यादा



  • सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला आज विदेशों में भी कुमाऊंनी संस्कृति को समृद्ध बना रही है। कभी यह पेट्रोमैक्स व लालटेन की रौशनी में होती थी, मगर अब इस पर आधुनिक तकनीक का रंग चढ़ गया है।


    मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की लीला के मंचन की कुमाऊंनी परंपरा भी मर्यादाओं से बंधी है। पारसी रंगमंच की छाप और दादरा, कहरवा, रूपक तालों में निबद्ध शास्त्रीय गीतों से सजी कुमाऊंनी रामलीला की परंपरा को मजबूत बनाने के लिए ही पहले तालीम दी जाती है। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला आज विदेशों में कुमाऊंनी संस्कृति को समृद्ध बना रही है। कभी यह पेट्रोमैक्स व लालटेन की रौशनी में होती थी, मगर अब इस पर आधुनिक तकनीक का रंग चढ़ गया है।
    19वीं शताब्दी से कुमाऊं में श्री रामलीला का मंचन शुरू हुआ। माना जाता है कि सबसे पहले 1860 में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में रामलीला मंचन की शुरुआत हुई। उसे संचालित कराने में तत्कालीन डिप्टी कलक्टर देवीदत्त जोशी का विशेष योगदान रहा। धीरे-धीरे कुमाऊंनी शैली में गाई जाने वाली रामलीला का प्रचलन बढ़ता गया। अल्मोड़ा के अलावा पिथौरागढ़, बागेश्वर, हल्द्वानी, बरेली व लखनऊ और अब दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ आदि शहरों में मंचन होता है। दरअसल, जहां-जहां कुमाऊंनी लोग गए, कुमाऊंनी शैली की रामलीला को भी साथ ले गए। हालांकि लालटेन की रौशनी में होने वाली रामलीला में अब माइक और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल होने लगा है। कुमाऊंनी रामलीला में गीत दादरा (6 मात्रा), रूपक (7 मात्रा), कहरवा (8 मात्रा), चांचर आदि तालों में निबद्ध होते हैं। हालांकि कहीं-कहीं गद्य शैली में भी संवाद बोले जाते हैं। वाचक अभिनय की रामलीला में बीच-बीच में हास्य पुट भी रहता है। अल्मोड़ा में 1940-41 में नृत्य सम्राट पं. उदयशंकर ने भी रामलीला मंचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

    मुस्लिम कलाकारों का योगदान
    कुमाऊंनी रामलीला में मुस्लिम कलाकारों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इतिहासकार प्रो. गिरिजा पांडे बताते हैं कि चंद वंश के शासन में मुस्लिम कलाकार थे। उन्होंने रामलीला में संगीत दिया। तालीम कराई। पुतले बनाने जैसी परंपरा विकसित की। तभी से यह रामलीला सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक मानी जाती है।

    ब्रज के लोकगीत व नौटंकी की झलक
    कुमाऊं के वाद्य यंत्र ढोल, दमाऊं, तुरतुरे हैं, लेकिन रामलीला मंचन में इनका प्रयोग नहीं होता। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि बाहर से आए संगीतकारों ने रामलीला में भी हारमोनियम, तबला आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया, जिससे इसका संगीत समृद्ध हुआ। इसमें ब्रज के लोकगीत और नौटंकी की झलक भी देखने को मिलती है।

    पारसी थिएटर व मथुरा शैली की छाप
    कुमाऊंनी रामलीला में पात्रों के आभूषणों, परदों व श्रंगार में मथुरा शैली का नजारा देखने को मिलता है। साथ ही दो सदियों तक बेहद समृद्ध रहे पारसी रंगमंच की झलक भी मिलती है।

Friday, August 10, 2012

न होमवर्क, न डांट और न पढ़ाई




सरकारी विद्यालयों के ये बच्चे कुछ पढ़े या न पढ़ें कक्षा आठ तक उत्तीर्ण कर देते हैं। ये बच्चे न ही होमवर्क करते हैं और न ही कक्षा में मन लगाते हैं। आठ तक पहुंच जाने के बाद भी अधिकांश बच्चेे अपना नाम लिखना तक नहीं जानते हैं।

गांवों में सरकारी स्कूल होते थे। विद्यार्थी मन लगाकर अध्ययन करते थे। सीखने की ललक होती थी। ये बच्चे भी आईएएस, पीसीएस से लेकर बड़े अधिकारी बनते थे। होमवर्क देते थे तो पूरा करके लाते थे। पढ़ाई न करने और शरारत करने पर पिटाई भी होती थी। इसमें बच्चों को कोई शिकायत नहीं होती थी। शिक्षक भी मन लगाकर पढ़ाते थे। परीक्षा परिणाम के आधार पर ही फेल व पास किया जाता था।
अब अचानक क्या हो गया। पता नहीं। गांव में उन्हीं के बच्चे पढ़ते हैं, जो कहीं नहीं जा सकते हैं। जिनके पास दो वक्त की रोटी भी खाने को नहीं है। मजदूरी करते हैं। बटाईदारी करते हैं। या फिर मजबूरी में स्कूल भेजना हो या शिक्षक अपनी नौकरी के लिए उन्हें जबरदस्ती स्कूल में बुला ले। अब अनुपस्थित होने पर न ही नाम काट सकते हैं और न ही फेल कर सकते हैं। शरारत करने पर डांट भी नहीं सकते हैं। सरकारी स्कूलों के ये बच्चे कुछ पढ़े या न पढ़ें कक्षा आठ तक उत्तीर्ण कर देते हैं। ये बच्चे न ही होमवर्क करते हैं और न ही कक्षा में मन लगाते हैं। आठ तक पहुंच जाने के बाद भी अधिकांश बच्चेे अपना नाम लिखना तक नहीं जानते हैं। बरेली रोड के एक स्कूल में हाईस्कूल बोर्ड का फार्म भरवाते समय कक्षा 10 के कुछ बच्चे अपने पिता का नाम तक सही से नहीं लिख सके। मिड-डे-मील के नाम पर थाली लेकर पहुंच तो जाते हैं लेकिन कक्षा में मन नहीं लगाते हैं। माता-पिता भी बच्चों की पढ़ाई से बेखबर रहते हैं। प्राथमिक से जूनियर में आ जो हैं तो 35 मिनट के पीरियड में क्या अंग्रेजी सिखाएं और क्या गणित में फ्रैक्शन का अभ्यास कराएं।
अच्छी-खासी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक भी महज खानापूर्ति के लिए विद्यालय आते हैं। अब शिक्षकों का मन भी पढ़ाने में नहीं लगता है। कुकुरमुत्ते की तरह शिक्षक संगठनों के नेता ट्रांसफर के लिए तो गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते हैं लेकिन बच्चों की पढ़ाई को दुरुस्त करने के लिए नीति-नियंताओं को कोसते हैं। अब शिक्षक 35 मिनट की कक्षा में ध्यान देने के बजाय धन कहां से कमाया जाय, इस पर अधिक फोकस करता है। इधर, सर्वशिक्षा अभियान के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बाद भी शिक्षा विभाग राष्ट्रीय कार्यक्रम के नाम पर अधिकांश शिक्षकों की ड्यूटी कभी जनगणना, मतगणना, बालगणना से लेकर कभी पशुगणना में लगा दी जाती है।
शिक्षा अधिकारी अगर निरीक्षण को पहुंच गए तो विद्यालयों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत खर्च की जाने वाली राशि को ठिकाने लगाने के लिए भरे गए रजिस्टरों को देखने से ही फुर्सत नहीं मिलती है। इसके बाद हाथ झाड़कर चल देते हैं। इस स्थिति में इंडिया शाइनिंग का क्या मतलब है। नीति-निर्धारक पता नहीं क्या नीतियां बना रहे हैं और किसके लिए? बुधवार को जागरण टीम जब प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों से स्वतंत्रता दिवस के बारे में पूछने गई तो पूरी व्यवस्था को लेकर ही कुछ शिक्षकों के अंदर की पीड़ा अभिव्यक्त हो गई। स्वयं भी शिक्षकों ने समय काटने की बात कहकर अपना नाम न छापने की शर्त रख दी।

Thursday, June 28, 2012

मरीज, समाजसेवी और मीडिया


अगर एक ही समाजसेवी की महिमा का मीडिया में बखान कर दिया जाएगा तो बाकी समाजसेवी परेशान हो जाते हैं। फिर वो नए मरीज को ढूंढते हैं। बरसाती मेढक की तरह उभरे इन समाजसेवियों के आगे परंपरागत तरीके से कई वर्षों से मरीजों की सेवा करने वाले समाजसेवियों का कद बौना हो गया है।




अगर आप गरीब मरीजों की सेवा करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका देखना चाहते हैं तो इन दिनों उत्तराखंड के नैनीताल जनपद के हल्द्वानी शहर आ सकते हैं। आए दिन नए मरीज की पीड़ा और उस पर सामाजिक कार्यकर्ताओं का सेवा भाव और मीडिया की भूमिका नित नए अंदाज में देखने को मिलेगी। शहर के कुछ लोग मीडिया में प्रकाशित मरीज की गुहार को सुनकर आर्थिक मदद को आगे भी आ जाएंगे। इसका असर यह हो रहा है कि धीरे-धीरे गरीब मरीज भी सरकारी अस्पताल में बढ़ते हुए दिख रहे हैं और सामाजिक कार्यकताओं की संख्या भी उसी तेजी से बढ़ गई है। एक मरीज पर आधा दर्जन से अधिक समाजसेवी जुट गए हैं। तब तक उनकी सेवा पूरी नहीं होगी, जब तक मीडिया में उसकी खबर नहीं छप जाती है। यानि कि मरीज के साथ सामाजिक कार्यकर्ता का बयान भी आवश्यक है। इसमें भी एक नहीं दो-दो और चार-चार समाजसेवियों का जिक्र करना होगा। अगर एक ही समाजसेवी की महिमा का मीडिया में बखान कर दिया जाएगा तो बाकी समाजसेवी परेशान हो जाते हैं। फिर वो नए मरीज को ढूंढते हैं। बरसाती मेढक की तरह उभरे इन समाजसेवियों के आगे परंपरागत तरीके से कई वर्षों से मरीजों की सेवा करने वाले समाजसेवियों का कद बौना हो गया है। इस बीच इन समाजसेवियों को कुमाऊं की प्रसिद्ध गायिका कबूतरी देवी मिल जाती हैं, इससे लगता है, इन्हें कोई बहुत बड़ा मुद्दा मिल गया है। अब तो निश्चित हो गया, मीडिया में छपने का। इसे तो मीडिया हाथों-हाथ लेगा। और मीडिया ने इसे हाथों-हाथ लिया भी। भले ही कबूतरी देवी का इलाज हो गया और अब वह स्वस्थ है और हमारी शुभकामनाएं भी हैं कि वह दीर्घायु रहें। लेकिन हल्द्वानी के निजी अस्पताल से लेकर सरकारी अस्पताल ले जाने की प्रक्रिया, अलग-अलग लोगों के बयान, अलग-अलग लोगों के प्रेस कान्फ्रेंस ने जिस तरह का माहौल पैदा किया, इससे उपचार करने वाले डाक्टर भी चौंक गए। चंद लोगों के वास्तविक सेवा भाव को छोड़कर बाकी लोगों के मीडिया में छपने के शौक ने कई लोगों के दिमाग में शक भी पैदा कर दिया। इस दौरान जब राज्य के मुखिया निकट के जनपद की सीट सितारंगज सीट से चुनाव लड़ रहे हों तो, उन तक भी यह खबर पहुंच गई या पहुंचा दी गई। सीएम पहुंचे और कबूतरी देवी को देखा, इसका भी असर रहा है कि कबूतरी का इलाज एम्स में कराया गया।

Wednesday, June 27, 2012

अलौकिक यात्रा पर चीन के रवैये की व्यथा



अलौकिक सुख देने वाली अविस्मरणीय यात्रा के दौरान चीन की दिक्कतें भले ही यात्री भूल जाते हैं लेकिन इनकी अनदेखी भी नहीं कर पाते हैं। कहते हैं, कमियां तो होती है लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ ही भगवान शिव में अटूट आस्था, श्रद्धा के आगे इसे छुपाना पड़ता है।


 विश्व प्रसिद्ध कैलास मानसरोवर यात्रा का चरम आनंद में तब व्यवधान उत्पन्न होता है जब तीर्थ यात्री चीन की सरहद में पहुंच जाते हैं। न भाषा समझ में आती है और न खाने के लिए कुछ मिलता है। टॉयलेट के लिए भी खुले में जाना पड़ता है। जबकि पिछले वर्ष से चीन ने शुल्क भी बढ़ा दिया है।
दिल्ली से 865 किलोमीटर की 28 दिन की यात्रा के दौरान 55 किलोमीटर की परिक्रमा की जाती है। अलौकिक सुख देने वाली अविस्मरणीय यात्रा के दौरान चीन की दिक्कतें भले ही यात्री भूल जाते हैं लेकिन इनकी अनदेखी भी नहीं कर पाते हैं। कहते हैं, कमियां तो होती है लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ ही भगवान शिव में अटूट आस्था, श्रद्धा के आगे इसे छुपाना पड़ता है। कठिन मार्ग और लंबी दूरी की यात्रा के दौरान तीर्थयात्री हिमालय की श्रृंखलाबद्ध चोटियों और नैसर्गिक सौन्दर्य का लुत्फ उठाते हुए जब दिल्ली की तरफ चलते हैं तो चीन की दिक्कतें भुलाने का प्रयास करते हैं। फिर भी चीन के असहयोगी रवैये की व्यथा भी होने लगती है। भारत की सीमा ताकलाकोट के बाद से ही चीन में रहने के लिए झोपडिय़ां तो हैं लेकिन दु:खद है कि यहां पर न ही शौचालयों की व्यवस्था है और न ही खाने का कोई प्रबंध। यहां पर केवल मांसहार है, भगवान शिव की यात्रा पर जाने वाले यात्री मांस का भक्षण करने की सोच भी नहीं सकते हैं। चीन की सीमा में प्रवेश होने से पहले पिछले वर्ष तक 700 डॉलर जमा करते थे लेकिन इस वर्ष से 851 डॉलर जमा होने लगे हैं। गुजरात के अहमदाबाद शहर के यात्री रोहित पंचाल कहते हैं कि 12 दिन चीन में रहना पड़ता है, इसमें तीन दिन मुश्किल हो जाते हैं। जब परिक्रमा करते हैं, तब लगता है मानो शिव साक्षात दर्शन दे रहे हैं। यात्री बार-बार कहते हैं कि चीनी लोगों का सहयोग नहीं मिलता है। भाषा की दिक्कत होती है। इसके अलावा कई अन्य दिक्कतें चीन में होती है। उन्होंने भारत सरकार के विदेश मंत्रालय से इस पर गंभीरता से विचार करने की सलाह भी देते है, जिससे की चीनियों के व्यवहार में सुधार हो सके और यात्रा का आकर्षण और बढ़े।

Tuesday, March 20, 2012

साहित्य की खेमेबंदी और मीडिया की भाषा

साहित्य की खेमेबंदी और मीडिया की भाषा
::::प्रसंगवश::::
गीतकार इरशाद कामिल का इंडिया टुडे में प्रकाशित साक्षात्कार साहित्य जगत के बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करता है। साहित्यकारों की खेमेबंदी पर तंज कसता है। हिन्दी साहित्य के आम आदमी से दूर होने के सवाल पर भी साहित्यकारों को जिम्मेदार ठहराता है। साहित्य जगत के लिए ऐसी स्थिति अत्यंत खेदजनक है।
जब वी मेट, मौसम, मेरे ब्रदर की दुल्हन के गीतकार इरशाद ने कहा है कि हिन्दी के मठाधीश फिल्मी गीत लिखने वाले को लेखक ही नहीं मानते। निश्चित तौर पर इरशाद के तर्क में कहीं भी गलत नहीं नजर आता है। हिन्दी साहित्यकारों के लिए इस तरह की टिप्पणी शर्मनाक ही कही जाएगी।  इरशाद कहते हैं कि जो भाषा बड़े वर्ग को कम्यूनिकेट ही नहीं करती वह भाषा ही नहीं। इस साक्षात्कार को पढ़ते ही मुझे उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में 17 मार्च को मीडिया के समक्ष चुनौतियां विषय पर आयोजित संगोष्ठी में वक्ताओं के व्याख्यान याद आने लगे। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल से लेकर प्रख्यात साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही,  से लेकर तमाम लोग जहां मीडिया की वर्तमान भाषा को लेकर तंज कस रहे थे। मीडिया में अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन हो या अन्य शब्दों के आने के साथ ही भाषा में सुधार पर जोर दे रहे थे। एक और वक्ता इंडिया टुडे के कार्यकारी संपादक दिलीप मंडल के व्याख्यान के बाद ही पूरा माहौल ही बदल गया। उन्होंने मीडिया पर आम लोगों के अटूट विश्वास से उत्पन्न संकट पर कई उदाहरण देकर मीडिया, साहित्य व शिक्षा क्षेत्र से जुड़े श्रोताओं को चौंका दिया। उन्होंने भाषा की सहजता व सरलता पर जोर देते हुए कहा कि इसी वजह से ही समाचार पत्र-पत्रिकाओं के पाठक लाखों में होते हैं। इसलिए मीडिया की भाषा पर बहस किया जाना जरूरी नहीं। वर्तमान में सूचना की संप्रेषणीयता इतनी तीव्र हो चुकी है कि भाषा का सरल व सहज होना स्वाभाविक ही है।
इस संगोष्ठी में इग्नू के पत्रकारिता विभाग के निदेशक डा. सुभाष धूलिया, वरिष्ठ पत्रकार सुनील साह, पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गोविन्द सिंह, वरिष्ठ पत्रकार त्रिनेत्र जोशी, दिवाकर भट्ट, आनंद बल्लभ उप्रेती, पवन सक्सेना, डा. सुबोध अग्निहोत्री समेत तमाम लोगों ने मीडिया के समक्ष चुनौतियों का जिक्र किया। अधिकांश वक्ताओं ने मीडिया की भाषा में सुधार पर जोर दिया।
दरअसल, हिन्दी भाषा को लेकर बहस बढ़ते ही जा रही है। एक ओर हिन्दी की शुद्धता, व्याकरण के साथ ही स्पष्टता पर जोर देने के लिए संगोष्ठियां, कार्यशालायें भी बढ़ती जा रही हैं। दूसरी ओर गांवों में पब्लिक स्कूल खुल गए हैं। इन स्कूलों में  अंग्रेजी पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है लेकिन इन स्कूलों बच्चे न ही पूरी तरह अंग्रेजी सीख पाते हैं और न ही हिन्दी। इस पर भी विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है।

Monday, January 30, 2012

उत्तराखंड में लहर के बिना ही बदलाव की बयार


उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव 2012 मतदान के बाद
::::नजरिया::::

गणेश जोशी
------------------------
      उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव 2012 का महापर्व शांतिपूर्वक संपन्न हो गया। 788 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में कैद हो गया। प्रत्याशी से लेकर उनके आका अब गुणा-भाग में व्यस्त हो गये। मतदाताओं के जबरदस्त उत्साह ने राजनीति दलों का आकलन बदल दिया। इस बीच प्रदेश में किसी एक दल की लहर नहीं दिख रही थी, फिर भी मतदाताओं का उत्साह किसे सत्तासीन करेगा? यह फैसला तो छह मार्च को होगा लेकिन इस स्थिति को परिवर्तन की बयार से भी देखा जा रहा है।
राज्य के 13 जनपदों में 63.63 मतदाताओं पर 788 प्रत्याशियों के भाग्य के फैसले की जिम्मेदारी थी। 70 विधायकों को विधानसभा में भेजकर  मूलभूत सुविधाओं से ही पिछड़ रहे राज्य को नई दिशा की तरफ ले जाने का महान कार्य करना था। काबिले तारीफ ही है कि राज्य के मतदाताओं ने 70 प्रतिशत से अधिक मतदान कर अति उत्साह का परिचय दिया। पर्वतीय क्षेत्र के नौ जनपदों से छह विधानसभा सीटें कम होने के बावजूद मतदाताओं के उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी। पलायन, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से ही जूझ रहे पर्वतीय क्षेत्रों के नागरिक विकास की बाट जोह रहे हैं। इसमें मौसम ने उनका साथ दिया। लोग मतदान केन्द्रों तक पहुंचे और अपने प्रत्याशी को जिताने की ठानी। मतदाताओं के इस अति उत्साह ने दो प्रमुख राजनीतिक दल सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस के रणनीतिकारों की बेचैनी बढ़ा दी। क्योंकि, दोनों दल भ्रष्टाचार दूर करने और विकास करने का नारा देकर फिर सत्तासुख भोगना चाहते हैं। 11 साल के राज्य में कांग्रेस व भाजपा दोनों दल पांच-पांच साल शासन कर चुकी हैं। एकमात्र क्षेत्रीय दल भी सत्ता में शामिल होकर बिखर चुका है। दोनों दलों के एजेंडे व कार्यनीति से जनता बखूबी परिचित थी। विकल्पों की कमी थी। राज्य में किसी भी एक दल की लहर नहीं चल रही थी। इसके बाद भी जनता में मतदान को लेकर दिखा जबरदस्त जोश राज्य में पनप रहे छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को कितना महत्व देगा? या इन दलों में राज्य की उन्नति से लेकर पहाड़ के जल, जंगल व जमीन की चिंता करने वाले दलों में कितना विश्वास रहेगा? परिणाम घोषित होने तक फिलहाल कयास ही लगाया जा सकता है। फिर भी राजनीतिक विश्लेषक इसे परिवर्तन की दृष्टि से भी देख रहे हैं।

Friday, January 27, 2012

कम से कम दागी तो कम हो


गणेश जोशी
       स्वामी रामदेव केन्द्र की यूपीए सरकार के खिलाफ आग उगलने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी को कालेधन को विदेश से वापस लाने वाला बड़ा समर्थक मान रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस अभियान में बसपा व भाकपा माले को भी शामिल कर लिया है। मतदाता जागरुक अभियान के तहत पांच राज्यों में चुनाव से पहले उनका यह फंडा कितना लंग लाता है, बहरहाल उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की धड़कनें बढ़ा दी हैं। स्वामी रामदेव को उत्तराखंड में सभा करने की अनुमति न मिलने के बाद अब चार फरवरी से उत्तर प्रदेश में सभाओं को संबोधित करते हुए नजर आयेंगे।
भ्रष्टाचार के मामले में स्वामी रामदेव केवल केन्द्र की कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं। इसके लिए उनके पास अपने तर्क है। कालेधन को विदेश से वापस लाने का प्रयास न करना और सशक्त लोकपाल बिल को लटकाना उनका मुख्य मुद्दा है। उत्तराखंड में मतदाता जागरूकता अभियान के जरिये इन मुद्दों को खूब भुनाना चाहते थे लेकिन उन्हें सभा करने की अनुमति ही नहीं मिली। अब उनके पास केवल मीडिया का सहारा बचा। स्वामी रामदेव ने कहा कि मेरे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मीडिया ही है। भारतीय जनता पार्टी व बहुजन समाज पार्टी में बागियों व दागियों के भी चुनाव लडऩे के प्रश्न पर स्वामी रामदेव नरम दिखने लगते हैं, फिर बोलने लगते है, हमारी लड़ाई दल विशेष से नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ है। राजनीति में शुचिता होनी चाहिये। इसके लिए चुनाव सुधार की आवश्यकता है। जिताऊ दागी हो या बागी का सूत्र नहीं चलना चाहिये। उत्तराखंड में अनुमति न मिलने के बाद अब स्वामी रामदेव चार फरवरी से उत्तर प्रदेश में सभाएं करेंगे।

Monday, January 23, 2012

रानी की खूबसूरती पर रोहिल्लों की सेना हुई थी मोहित

 
गणेश जोशी
    कुमाऊं के प्रवेश द्वार काठगोदाम स्थित रानीबाग में जियारानी की गुफा का ऐतिहासिक महत्व है। रानी मौला देवी यहां 12 वर्ष तक रही थीं। उन्होंने अपनी सेना गठित की थी और खूबसूरत बाग भी बनाया था। इसकी वजह से ही इस क्षेत्र का नाम रानीबाग पड़ा। उनकी याद में दूर-दूर बसे उनके वंशज (कत्यूरी) प्रतिवर्ष यहां आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं। जागर लगाते हैं। डांगरिये झूमते हैं। कड़ाके की ठंड में भी पूरी रात भक्तिमय रहता है।
मौला देवी पिथौरागढ़ के राजा प्रीतमदेवी की दूसरी पत्नी थीं। वह हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडरी की दूसरी बेटी थी। 1398 में जब समरकंद का शासक तैमूर लंग मेरठ को लूटने के बाद हरिद्वार पहुंच रहा था। तब राजा पुंडरी ने प्रीतमदेव से मदद मांगी थी। राजा प्रीतम ने अपने भतीजे ब्रह्मदेव को वहां भेजा था। इस दौरान ब्रह्मदेव मौला देवी को प्रेम करने लगे, लेकिन पुंडीर ने दूसरी बेटी मौला की शादी प्रीतम से ही करवा दी। लेकिन बाद में मौला देवी रानीबाग पहुंच गयी। यहां पर उन्होंने सेना गठित की थी। सुंदर बाग भी बनाया था। इतिहास में वर्णन है कि एक बार मौला देवी यहां नहा रही थीं। उस समय रोहिल्लों की सैनिकों ने उसकी खूबसूरती देखकर उसका पीछा किया। उसकी सेना हार गयी। वह गुफा में जाकर छिप गईं। इस सूचना के बाद प्रीतम देव उसे पिथौरागढ़ ले गये। प्रीतम की मृत्यु के बाद मौला देवी ने बेटे दुलाशाही के संरक्षक के रूप में शासन भी किया था। उसकी राजधानी चौखुटिया व कालागढ़ थी। माना जाता है कि राजमाता होने के चलते उसे जियारानी भी कहा जाता है। मां के लिए जिया शब्द का प्रयोग किया जाता था। रानीबाग में जियारानी की गुफा नाम से आज भी प्रचलित है। कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में यहां पहुंचते हैं।

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
कत्यूरी वंशज नहीं देख पाये 'जियारानी का घाघरा'

दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर की पूजा
कत्यूरी वंशज दूरस्थ क्षेत्रों से रानीबाग में जागर लगाने पहुंचे। यहां पर जियारानी का घाघरा वाला पत्थर (चित्रशिला) के दर्शन नहीं कर सके। शिला के बारिश के चलते ढक जाने से दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर ही पूजा-अर्चना की। रानीबाग में 14 जनवरी की रात को गढ़वाल के कई क्षेत्रों से कत्यूरी व पंवार वंशज यहां पहुंचे थे। रातभर जागर चला। सुबह से समय वे जियारानी के घाघरे वाले पत्थर की पूजा करते थे लेकिन उन्हें पत्थर नहीं दिखा। इससे वे निराश हो गये। पत्थर बारिश के चलते ढक गया था। ऐसा पहली बार हुआ कि कत्यूरी वंशज बिना चित्रशिला को देखे ही लौटे। उन्होने दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर पूजा की परिक्रमा की। स्नान करने के बाद लौट गये। 15 जनवरी की रात कुमाऊं क्षेत्र के कत्यूरी वंशज यहां पहुंचे। उन्होंने जागर लगाया। डंगरिये नाचे और आशीर्वाद दिया। देर रात तक जागर चलता रहा। मान्यता है कि एक बार विष्णु ने विश्वकर्मा से शिला का निर्माण कराया था। उस पर बैठकर सूतप ऋषि को वरदान दिया था।

Wednesday, January 18, 2012

दिखते ही नहीं कौवे तो बुलायें किसे


कौवे बुलाने की परंपरा कुमाऊं में वर्षों से चली आ रही है। कौवे को बुलाना पूर्वजों को याद करना भी माना जाता रहा है। इसके अलावा यह पक्षी अन्य परंपराओं से जुड़ा होने के साथ ही वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आलम यह है कि अब यह पक्षी न ही घरों के आगे मंडराते हुए दिखता और न ही घुघुति खाने आ रहा है।
मान्यता है कि कौवे मकर संक्रांति के दिन पितरों के रूप में एक दिन हमसे मिलने आते हैं। इसके अलावा मंदिरों में पूजा-अर्चना के बाद सबसे पहले कौवे को खिलाया जाता है। प्राचीन समय से ही कुमाऊंनी रीति-रिवाजों में कौवे का विशेष महत्व है। घुघुति के दिन तो बकायदा कौवे को घर पर बुलाया जाता है। घरों की छत पर पकवान रखा जाता है, और बच्चे घुघुत की माला गले में डालकर आवाज लगाते हैं। विडंबना है कि अब कौवे बुलाने की परंपरा महज औपचारिक होते जा रही है। खासकर शहरी क्षेत्रों में कौवे अब ढूंढने से भी नहीं मिल रहे हैं। किवंदती है कि कुमाऊं के एक राजा को ज्योतिषियों ने अवगत कराया कि उसकी मौत कौवों के हमले से हुई होगी। राजा घुघुत ने अपने स्वरूप के आटे की मूर्तियां बनायी और कौवों को खिला दी। इससे उसे जीवनदान मिला। कुमाऊं में इस त्यौहार को कत्यूर राजाओं से भी जोड़कर देखा जाता है। प्रभागीय वनाधिकारी पराग मधुकर धकाते बताते हैं कि वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से गौरेया की तरह कौवों की संख्या भी कम हो गयी है। वाइल्ड टस्कर सोसाइटी के संस्थापक विकास किरौला कहते हैं कि कौवा प्रकृति की सफाई करता है। गाय, बैल, भैंस व अन्य मरने जानवरों को खाता है। इससे प्रकृति में सफाई बनी रहती थी। इनकी संख्या कम होना चिंता का विषय है। सामान्यता कौवे तीन तरह के होते हैं। इसमें घेरलू कौवा, जंगली कौवा और महाकाक (रेवन क्रो)। घरेलू कौवा घरों के आसपास रहता है, जंगली कौवा जंगलों में महाकाक घने जंगलों में निवास करता है। कौवा खुद शिकार नहीं करता है। फेंका हुआ खाना और मरे जानवरों को ही खाता है। इसके अलावा जानवरों के इलाज में डाइक्लोफेनिक दवा का इस्तेमाल होता था। इन जानवरों के मरने के बाद जब कौवे इन्हें खाते थे तो उनका लीवर खराब हो जाता था और इनकी मृत्यु हो जाती थी। इसके चलते भी इनकी संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ। अब इस दवा को भारत में बंद कर दिया है। इसके बदले दूसरी दवा बाजार में आ चुकी है।
काले कौवा काले-काले, घुघुति माला खाले
तू लिजा बड़, मैं कैं दीजा सूना घड़...।

Wednesday, January 4, 2012

मैदान में बैठकर पहाड़ में वोट को नेताओं की गिद्ध दृष्टि

:::दृष्टिकोण:::
विषम भौगोलिक परिस्थिति। आवागमन के सीमित संसाधन। इसमें भी अधिकांश कच्ची व टूटी सड़कें। पेयजल की आधी-अधूरी व्यवस्था। रोजगार का कोई जरिया नहीं। सीढ़ीनुमा खेतों के लिए सिंचाई के बंदोबस्त कुछ भी नहीं। छह महीने तक की खेती से अनाज का भी इंतजाम न होना। अस्पतालों में चिकित्सक नहीं, विद्यालय व कालेजों में शिक्षक नहीं। उत्पाद के लिए बाजार नहीं। पलायन के चलते उजाड़ होते गांव। पेड़ विहीन होते जंगल। गायब होती लोक संस्कृति। लुप्त होती परंपरा।
तमाम तरह की अव्यवस्थाओं के बीच बसे छह जनपदों वाले कुमाऊं मंडल के पांच जनपद पर्वतीय क्षेत्र में हैं। 29 विधानसभा सीटों वाले क्षेत्र में आलम यह है कि जिन जनप्रतिनिधियों को वहां की जनता विकास के लिए वोट देकर चुनती है, जब नेताओं को सत्ता हासिल हो जाती है तो फिर उसी क्षेत्र के आम आदमी के बीच रहना पसंद नहीं करते। क्षेत्र का विकास हो या नहीं, इसकी परवाह तो क्षणिक होती है लेकिन अपने विकास के लिए पलायन कर जाते हैं। लंबे समय से जिस पलायन की पीड़ा से आम आदमी गुजर रहा है, नेता भी अपने 'विकासÓ के लिए जनता को पीठ दिखाकर चल दे रहे हैं। पहले जहां दिल्ली, लखनऊ पलायन होता था, लेकिन नौ नवंबर 2000 के बाद से दोहरा पलायन हो गया। विकास से कोसों दूर पर्वतीय क्षेत्र के ग्रामीण अब हल्द्वानी, देहरादून जैसे सुगम क्षेत्रों में रोजगार व अन्य सुविधाओं के चलते बस रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीण पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर जनपद मुख्यालय वाले नगर में पहुंच रहे हैं। अधिकांश जनप्रतिनिधियों ने विकास की लड़ाई के बजाय, धन कमाने के बाद शहरी क्षेत्रों की ऐशो-आराम की जिन्दगी तलाशी और निरीह जनता रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन कर गयी। फिर से राज्य में तीसरे विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है। पहाड़ पर रहने वाले नेता कहते हैं कि हल्द्वानी, अन्य शहरों व नगरों में आरामतलब हो चुके नेताओं की गिद्ध दृष्टि फिर से पर्वतीय क्षेत्रों की जनता को कथित हितैषी बनने के लिए लग गयी है। विषम परिस्थिति में रहने वालों को चुनाव की इस विषम स्थिति से उबरने के लिए नये सिरे से सोचना होगा।

Sunday, January 1, 2012

दिन भर मांगते रहे भीख..


बदन में फटेहाल कपड़े। शरीर में गंदगी। नंगे पांव लेकर भीख मांगते हुए बच्चे थर्टी फस्र्ट के जश्न से महरूम थे। उन्हें न ही नये साल की जानकारी थी और न ही स्कूल की। केवल दिन भर भीख मांगकर शाम तक 50-60 रुपये कमाकर पेट का गुजारा करना उनकी नियति बन गयी।
हल्द्वानी में एमबी पीजी कालेज के बाहर शनिवार को सुबह से ही 11 वर्षीय सहाना अपनी बहन व मामू के साथ वहां पहुंच गयी। तीनों के हाथ में तेल से भरा कटोरा था। इसमें कुछ पैसे भी थे, जो भी कालेज के बाहर आ रहा था, उसे पैसे देने को मजबूर कर रहे थे। खासकर वहां पर खड़े लड़के-लड़कियों को देखकर ही, उनकी जोड़ी की दुआ करने लगते। कहते, 'आपकी जोड़ी सलामत रहे। किसी की नजर न लगे। आप खूब कमायें। कुछ हमें भी दे दीजिए। भूख लगी है, कुछ खा लेंगे। अधिकांश लड़के-लड़कियां हो या कोई और। कुछ न कुछ पैसे उनकी कटोरी में डाल देते। इसी से उनकी कमाई प्रतिदिन की 50 से 60 रुपये तक हो जाती। सहाना बताती हैं कि दो रुपये पांच रुपये लोग दे देते हैं। इस पैसे से चावल खरीदकर ले जायेंगे, खाना बनायेंगे। उसका कहना था कि 17 नंबर गली में रहते हैं। चार भाई दो और बहनें हैं। यहां पर भीख मांगने के लिए उसके साथ उसकी बहन और मामू भी है। एक दिन में 60 रुपये तक मिल जाते हैं, अभी तक 30 रुपये ही हुये हैं। करन से स्कूल के बारे में पूछा तो, कहने लगा स्कूल नहीं जाते हैं। आज 15 रुपये हो गये हैं। रेलवे स्टेशन में शिक्षा विभाग की ओर से घुमंतू व भीख मांगने वाले बच्चों के लिए संचालित मोबाइल स्कूल वैन के बारे में पूछा तो करन ने कहा, हमें इसके बारे में किसी ने नहीं बताया। थर्टी फस्र्ट व नये साल से अंजान तीनों हंसते हुए कालेज गेट से चले गये। वहीं केमू बस बस स्टेशन पर बच्चे कूड़े बीन रहे थे, जहां थर्टी फस्र्ट के जश्न में लोग सराबोर थे, वहीं ये बच्चे कूड़ा बीनते हुए शिक्षा विभाग के अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों से लेकर इनके नाम पर करोड़ों रुपये डकारने वाले गैर सरकारी संगठनों को चिढ़ा रहे थे।