Monday, January 30, 2012

उत्तराखंड में लहर के बिना ही बदलाव की बयार


उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव 2012 मतदान के बाद
::::नजरिया::::

गणेश जोशी
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      उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव 2012 का महापर्व शांतिपूर्वक संपन्न हो गया। 788 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में कैद हो गया। प्रत्याशी से लेकर उनके आका अब गुणा-भाग में व्यस्त हो गये। मतदाताओं के जबरदस्त उत्साह ने राजनीति दलों का आकलन बदल दिया। इस बीच प्रदेश में किसी एक दल की लहर नहीं दिख रही थी, फिर भी मतदाताओं का उत्साह किसे सत्तासीन करेगा? यह फैसला तो छह मार्च को होगा लेकिन इस स्थिति को परिवर्तन की बयार से भी देखा जा रहा है।
राज्य के 13 जनपदों में 63.63 मतदाताओं पर 788 प्रत्याशियों के भाग्य के फैसले की जिम्मेदारी थी। 70 विधायकों को विधानसभा में भेजकर  मूलभूत सुविधाओं से ही पिछड़ रहे राज्य को नई दिशा की तरफ ले जाने का महान कार्य करना था। काबिले तारीफ ही है कि राज्य के मतदाताओं ने 70 प्रतिशत से अधिक मतदान कर अति उत्साह का परिचय दिया। पर्वतीय क्षेत्र के नौ जनपदों से छह विधानसभा सीटें कम होने के बावजूद मतदाताओं के उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी। पलायन, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से ही जूझ रहे पर्वतीय क्षेत्रों के नागरिक विकास की बाट जोह रहे हैं। इसमें मौसम ने उनका साथ दिया। लोग मतदान केन्द्रों तक पहुंचे और अपने प्रत्याशी को जिताने की ठानी। मतदाताओं के इस अति उत्साह ने दो प्रमुख राजनीतिक दल सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस के रणनीतिकारों की बेचैनी बढ़ा दी। क्योंकि, दोनों दल भ्रष्टाचार दूर करने और विकास करने का नारा देकर फिर सत्तासुख भोगना चाहते हैं। 11 साल के राज्य में कांग्रेस व भाजपा दोनों दल पांच-पांच साल शासन कर चुकी हैं। एकमात्र क्षेत्रीय दल भी सत्ता में शामिल होकर बिखर चुका है। दोनों दलों के एजेंडे व कार्यनीति से जनता बखूबी परिचित थी। विकल्पों की कमी थी। राज्य में किसी भी एक दल की लहर नहीं चल रही थी। इसके बाद भी जनता में मतदान को लेकर दिखा जबरदस्त जोश राज्य में पनप रहे छोटे-छोटे राजनीतिक दलों को कितना महत्व देगा? या इन दलों में राज्य की उन्नति से लेकर पहाड़ के जल, जंगल व जमीन की चिंता करने वाले दलों में कितना विश्वास रहेगा? परिणाम घोषित होने तक फिलहाल कयास ही लगाया जा सकता है। फिर भी राजनीतिक विश्लेषक इसे परिवर्तन की दृष्टि से भी देख रहे हैं।

Friday, January 27, 2012

कम से कम दागी तो कम हो


गणेश जोशी
       स्वामी रामदेव केन्द्र की यूपीए सरकार के खिलाफ आग उगलने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी को कालेधन को विदेश से वापस लाने वाला बड़ा समर्थक मान रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस अभियान में बसपा व भाकपा माले को भी शामिल कर लिया है। मतदाता जागरुक अभियान के तहत पांच राज्यों में चुनाव से पहले उनका यह फंडा कितना लंग लाता है, बहरहाल उन्होंने कांग्रेसी नेताओं की धड़कनें बढ़ा दी हैं। स्वामी रामदेव को उत्तराखंड में सभा करने की अनुमति न मिलने के बाद अब चार फरवरी से उत्तर प्रदेश में सभाओं को संबोधित करते हुए नजर आयेंगे।
भ्रष्टाचार के मामले में स्वामी रामदेव केवल केन्द्र की कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार मान रहे हैं। इसके लिए उनके पास अपने तर्क है। कालेधन को विदेश से वापस लाने का प्रयास न करना और सशक्त लोकपाल बिल को लटकाना उनका मुख्य मुद्दा है। उत्तराखंड में मतदाता जागरूकता अभियान के जरिये इन मुद्दों को खूब भुनाना चाहते थे लेकिन उन्हें सभा करने की अनुमति ही नहीं मिली। अब उनके पास केवल मीडिया का सहारा बचा। स्वामी रामदेव ने कहा कि मेरे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मीडिया ही है। भारतीय जनता पार्टी व बहुजन समाज पार्टी में बागियों व दागियों के भी चुनाव लडऩे के प्रश्न पर स्वामी रामदेव नरम दिखने लगते हैं, फिर बोलने लगते है, हमारी लड़ाई दल विशेष से नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के खिलाफ है। राजनीति में शुचिता होनी चाहिये। इसके लिए चुनाव सुधार की आवश्यकता है। जिताऊ दागी हो या बागी का सूत्र नहीं चलना चाहिये। उत्तराखंड में अनुमति न मिलने के बाद अब स्वामी रामदेव चार फरवरी से उत्तर प्रदेश में सभाएं करेंगे।

Monday, January 23, 2012

रानी की खूबसूरती पर रोहिल्लों की सेना हुई थी मोहित

 
गणेश जोशी
    कुमाऊं के प्रवेश द्वार काठगोदाम स्थित रानीबाग में जियारानी की गुफा का ऐतिहासिक महत्व है। रानी मौला देवी यहां 12 वर्ष तक रही थीं। उन्होंने अपनी सेना गठित की थी और खूबसूरत बाग भी बनाया था। इसकी वजह से ही इस क्षेत्र का नाम रानीबाग पड़ा। उनकी याद में दूर-दूर बसे उनके वंशज (कत्यूरी) प्रतिवर्ष यहां आते हैं। पूजा-अर्चना करते हैं। जागर लगाते हैं। डांगरिये झूमते हैं। कड़ाके की ठंड में भी पूरी रात भक्तिमय रहता है।
मौला देवी पिथौरागढ़ के राजा प्रीतमदेवी की दूसरी पत्नी थीं। वह हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडरी की दूसरी बेटी थी। 1398 में जब समरकंद का शासक तैमूर लंग मेरठ को लूटने के बाद हरिद्वार पहुंच रहा था। तब राजा पुंडरी ने प्रीतमदेव से मदद मांगी थी। राजा प्रीतम ने अपने भतीजे ब्रह्मदेव को वहां भेजा था। इस दौरान ब्रह्मदेव मौला देवी को प्रेम करने लगे, लेकिन पुंडीर ने दूसरी बेटी मौला की शादी प्रीतम से ही करवा दी। लेकिन बाद में मौला देवी रानीबाग पहुंच गयी। यहां पर उन्होंने सेना गठित की थी। सुंदर बाग भी बनाया था। इतिहास में वर्णन है कि एक बार मौला देवी यहां नहा रही थीं। उस समय रोहिल्लों की सैनिकों ने उसकी खूबसूरती देखकर उसका पीछा किया। उसकी सेना हार गयी। वह गुफा में जाकर छिप गईं। इस सूचना के बाद प्रीतम देव उसे पिथौरागढ़ ले गये। प्रीतम की मृत्यु के बाद मौला देवी ने बेटे दुलाशाही के संरक्षक के रूप में शासन भी किया था। उसकी राजधानी चौखुटिया व कालागढ़ थी। माना जाता है कि राजमाता होने के चलते उसे जियारानी भी कहा जाता है। मां के लिए जिया शब्द का प्रयोग किया जाता था। रानीबाग में जियारानी की गुफा नाम से आज भी प्रचलित है। कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में यहां पहुंचते हैं।

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कत्यूरी वंशज नहीं देख पाये 'जियारानी का घाघरा'

दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर की पूजा
कत्यूरी वंशज दूरस्थ क्षेत्रों से रानीबाग में जागर लगाने पहुंचे। यहां पर जियारानी का घाघरा वाला पत्थर (चित्रशिला) के दर्शन नहीं कर सके। शिला के बारिश के चलते ढक जाने से दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर ही पूजा-अर्चना की। रानीबाग में 14 जनवरी की रात को गढ़वाल के कई क्षेत्रों से कत्यूरी व पंवार वंशज यहां पहुंचे थे। रातभर जागर चला। सुबह से समय वे जियारानी के घाघरे वाले पत्थर की पूजा करते थे लेकिन उन्हें पत्थर नहीं दिखा। इससे वे निराश हो गये। पत्थर बारिश के चलते ढक गया था। ऐसा पहली बार हुआ कि कत्यूरी वंशज बिना चित्रशिला को देखे ही लौटे। उन्होने दूसरे पत्थर को प्रतीक मानकर पूजा की परिक्रमा की। स्नान करने के बाद लौट गये। 15 जनवरी की रात कुमाऊं क्षेत्र के कत्यूरी वंशज यहां पहुंचे। उन्होंने जागर लगाया। डंगरिये नाचे और आशीर्वाद दिया। देर रात तक जागर चलता रहा। मान्यता है कि एक बार विष्णु ने विश्वकर्मा से शिला का निर्माण कराया था। उस पर बैठकर सूतप ऋषि को वरदान दिया था।

Wednesday, January 18, 2012

दिखते ही नहीं कौवे तो बुलायें किसे


कौवे बुलाने की परंपरा कुमाऊं में वर्षों से चली आ रही है। कौवे को बुलाना पूर्वजों को याद करना भी माना जाता रहा है। इसके अलावा यह पक्षी अन्य परंपराओं से जुड़ा होने के साथ ही वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आलम यह है कि अब यह पक्षी न ही घरों के आगे मंडराते हुए दिखता और न ही घुघुति खाने आ रहा है।
मान्यता है कि कौवे मकर संक्रांति के दिन पितरों के रूप में एक दिन हमसे मिलने आते हैं। इसके अलावा मंदिरों में पूजा-अर्चना के बाद सबसे पहले कौवे को खिलाया जाता है। प्राचीन समय से ही कुमाऊंनी रीति-रिवाजों में कौवे का विशेष महत्व है। घुघुति के दिन तो बकायदा कौवे को घर पर बुलाया जाता है। घरों की छत पर पकवान रखा जाता है, और बच्चे घुघुत की माला गले में डालकर आवाज लगाते हैं। विडंबना है कि अब कौवे बुलाने की परंपरा महज औपचारिक होते जा रही है। खासकर शहरी क्षेत्रों में कौवे अब ढूंढने से भी नहीं मिल रहे हैं। किवंदती है कि कुमाऊं के एक राजा को ज्योतिषियों ने अवगत कराया कि उसकी मौत कौवों के हमले से हुई होगी। राजा घुघुत ने अपने स्वरूप के आटे की मूर्तियां बनायी और कौवों को खिला दी। इससे उसे जीवनदान मिला। कुमाऊं में इस त्यौहार को कत्यूर राजाओं से भी जोड़कर देखा जाता है। प्रभागीय वनाधिकारी पराग मधुकर धकाते बताते हैं कि वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से गौरेया की तरह कौवों की संख्या भी कम हो गयी है। वाइल्ड टस्कर सोसाइटी के संस्थापक विकास किरौला कहते हैं कि कौवा प्रकृति की सफाई करता है। गाय, बैल, भैंस व अन्य मरने जानवरों को खाता है। इससे प्रकृति में सफाई बनी रहती थी। इनकी संख्या कम होना चिंता का विषय है। सामान्यता कौवे तीन तरह के होते हैं। इसमें घेरलू कौवा, जंगली कौवा और महाकाक (रेवन क्रो)। घरेलू कौवा घरों के आसपास रहता है, जंगली कौवा जंगलों में महाकाक घने जंगलों में निवास करता है। कौवा खुद शिकार नहीं करता है। फेंका हुआ खाना और मरे जानवरों को ही खाता है। इसके अलावा जानवरों के इलाज में डाइक्लोफेनिक दवा का इस्तेमाल होता था। इन जानवरों के मरने के बाद जब कौवे इन्हें खाते थे तो उनका लीवर खराब हो जाता था और इनकी मृत्यु हो जाती थी। इसके चलते भी इनकी संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ। अब इस दवा को भारत में बंद कर दिया है। इसके बदले दूसरी दवा बाजार में आ चुकी है।
काले कौवा काले-काले, घुघुति माला खाले
तू लिजा बड़, मैं कैं दीजा सूना घड़...।

Wednesday, January 4, 2012

मैदान में बैठकर पहाड़ में वोट को नेताओं की गिद्ध दृष्टि

:::दृष्टिकोण:::
विषम भौगोलिक परिस्थिति। आवागमन के सीमित संसाधन। इसमें भी अधिकांश कच्ची व टूटी सड़कें। पेयजल की आधी-अधूरी व्यवस्था। रोजगार का कोई जरिया नहीं। सीढ़ीनुमा खेतों के लिए सिंचाई के बंदोबस्त कुछ भी नहीं। छह महीने तक की खेती से अनाज का भी इंतजाम न होना। अस्पतालों में चिकित्सक नहीं, विद्यालय व कालेजों में शिक्षक नहीं। उत्पाद के लिए बाजार नहीं। पलायन के चलते उजाड़ होते गांव। पेड़ विहीन होते जंगल। गायब होती लोक संस्कृति। लुप्त होती परंपरा।
तमाम तरह की अव्यवस्थाओं के बीच बसे छह जनपदों वाले कुमाऊं मंडल के पांच जनपद पर्वतीय क्षेत्र में हैं। 29 विधानसभा सीटों वाले क्षेत्र में आलम यह है कि जिन जनप्रतिनिधियों को वहां की जनता विकास के लिए वोट देकर चुनती है, जब नेताओं को सत्ता हासिल हो जाती है तो फिर उसी क्षेत्र के आम आदमी के बीच रहना पसंद नहीं करते। क्षेत्र का विकास हो या नहीं, इसकी परवाह तो क्षणिक होती है लेकिन अपने विकास के लिए पलायन कर जाते हैं। लंबे समय से जिस पलायन की पीड़ा से आम आदमी गुजर रहा है, नेता भी अपने 'विकासÓ के लिए जनता को पीठ दिखाकर चल दे रहे हैं। पहले जहां दिल्ली, लखनऊ पलायन होता था, लेकिन नौ नवंबर 2000 के बाद से दोहरा पलायन हो गया। विकास से कोसों दूर पर्वतीय क्षेत्र के ग्रामीण अब हल्द्वानी, देहरादून जैसे सुगम क्षेत्रों में रोजगार व अन्य सुविधाओं के चलते बस रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीण पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर जनपद मुख्यालय वाले नगर में पहुंच रहे हैं। अधिकांश जनप्रतिनिधियों ने विकास की लड़ाई के बजाय, धन कमाने के बाद शहरी क्षेत्रों की ऐशो-आराम की जिन्दगी तलाशी और निरीह जनता रोजगार के लिए शहरों की तरफ पलायन कर गयी। फिर से राज्य में तीसरे विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है। पहाड़ पर रहने वाले नेता कहते हैं कि हल्द्वानी, अन्य शहरों व नगरों में आरामतलब हो चुके नेताओं की गिद्ध दृष्टि फिर से पर्वतीय क्षेत्रों की जनता को कथित हितैषी बनने के लिए लग गयी है। विषम परिस्थिति में रहने वालों को चुनाव की इस विषम स्थिति से उबरने के लिए नये सिरे से सोचना होगा।

Sunday, January 1, 2012

दिन भर मांगते रहे भीख..


बदन में फटेहाल कपड़े। शरीर में गंदगी। नंगे पांव लेकर भीख मांगते हुए बच्चे थर्टी फस्र्ट के जश्न से महरूम थे। उन्हें न ही नये साल की जानकारी थी और न ही स्कूल की। केवल दिन भर भीख मांगकर शाम तक 50-60 रुपये कमाकर पेट का गुजारा करना उनकी नियति बन गयी।
हल्द्वानी में एमबी पीजी कालेज के बाहर शनिवार को सुबह से ही 11 वर्षीय सहाना अपनी बहन व मामू के साथ वहां पहुंच गयी। तीनों के हाथ में तेल से भरा कटोरा था। इसमें कुछ पैसे भी थे, जो भी कालेज के बाहर आ रहा था, उसे पैसे देने को मजबूर कर रहे थे। खासकर वहां पर खड़े लड़के-लड़कियों को देखकर ही, उनकी जोड़ी की दुआ करने लगते। कहते, 'आपकी जोड़ी सलामत रहे। किसी की नजर न लगे। आप खूब कमायें। कुछ हमें भी दे दीजिए। भूख लगी है, कुछ खा लेंगे। अधिकांश लड़के-लड़कियां हो या कोई और। कुछ न कुछ पैसे उनकी कटोरी में डाल देते। इसी से उनकी कमाई प्रतिदिन की 50 से 60 रुपये तक हो जाती। सहाना बताती हैं कि दो रुपये पांच रुपये लोग दे देते हैं। इस पैसे से चावल खरीदकर ले जायेंगे, खाना बनायेंगे। उसका कहना था कि 17 नंबर गली में रहते हैं। चार भाई दो और बहनें हैं। यहां पर भीख मांगने के लिए उसके साथ उसकी बहन और मामू भी है। एक दिन में 60 रुपये तक मिल जाते हैं, अभी तक 30 रुपये ही हुये हैं। करन से स्कूल के बारे में पूछा तो, कहने लगा स्कूल नहीं जाते हैं। आज 15 रुपये हो गये हैं। रेलवे स्टेशन में शिक्षा विभाग की ओर से घुमंतू व भीख मांगने वाले बच्चों के लिए संचालित मोबाइल स्कूल वैन के बारे में पूछा तो करन ने कहा, हमें इसके बारे में किसी ने नहीं बताया। थर्टी फस्र्ट व नये साल से अंजान तीनों हंसते हुए कालेज गेट से चले गये। वहीं केमू बस बस स्टेशन पर बच्चे कूड़े बीन रहे थे, जहां थर्टी फस्र्ट के जश्न में लोग सराबोर थे, वहीं ये बच्चे कूड़ा बीनते हुए शिक्षा विभाग के अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों से लेकर इनके नाम पर करोड़ों रुपये डकारने वाले गैर सरकारी संगठनों को चिढ़ा रहे थे।