मंजिल का नहीं ज्ञान,
सस्कारो से अंजान,
चकाचौध में जीने को,
भटक रहा इन्सान.
परपीड़ा से विमुख,
संवेदना हुई क्षीण,
अनन्त की चाहत में,
छटपटा रहा इन्सान.
स्वयं को गया भूल,
चिंता नहीं चिता की,
आपाधापी की जिंदगी में,
खो गया इंसान.
 
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सस्कारो से अंजान,
चकाचौध में जीने को,
भटक रहा इन्सान.
परपीड़ा से विमुख,
संवेदना हुई क्षीण,
अनन्त की चाहत में,
छटपटा रहा इन्सान.
स्वयं को गया भूल,
चिंता नहीं चिता की,
आपाधापी की जिंदगी में,
खो गया इंसान.
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