Sunday, December 2, 2012

मानसिक स्तर पर सोचा, बजा दी ताली...



जब पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है तो लाचार पुलिस को डंडे को हवा में घुमाने के लिए भी जगह नहीं मिल पाती है। कुछ जेब गर्म हो जाए, उसी में ही संतुष्ट होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है।

पत्रकारिता के पेशे से ही हम अपनी बात करते हैं। बड़ी शर्मनाक स्थिति है। कभी-कभी बड़ी कोफ्त होती है। हम क्या लिखते हैं और लोगों को क्या पढऩे को मजबूर करते हैं, अगर गौर से देखें तो स्वयं पर भी हंसी आ जाती है। कई देशों में विकास के लिए विजन पर आधारित समाचार होते हैं। नए अनुसंधान होते हैं। ज्ञान व विज्ञान पर आधारित गूढ़ रहस्य होते हैं। तमाम ऐसे रहस्य होते हैं, जो जीवन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। सामान्य जीवन की उलझनों से ऊपर उठकर दर्शन व मनोविज्ञान पर सोचने का व्यापक दायरा होता है।
हम भारत के छोटे शहरों की चर्चा करें तो प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले समाचार और समाचारों पर चर्चा, बड़ी अजीबोगरीब स्थिति की होती है। व्यापारियों ने सड़के के किनारे नालियों के ऊपर कब्जा किया फिर आधे सड़क तक सामान बिखेर दिया। अगर मौका मिले तो ठेला आगे लगवा दिया, जिससे कुछ पैसे भी मिल जाते हैं। इसकी वजह से शहर की यातायात व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो जाती है। इसमें नगर निगम से लेकर प्रशासनिक अधिकारी भी लाचार दिखते हैं। शॉपिंग कांम्लैक्स, मॉल, शोरूम, स्कूल, कालेज, अस्पताल, होटल, रेस्तरां व बड़े भवनों को सड़क के किनारे बिना पार्किंग की व्यवस्था किए ही लेन-देन कर अनुमति दे दी जाती है। जनप्रतिनिधियों की विकास की सोच कहीं नहीं झलकती है। जब पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है तो लाचार पुलिस को डंडे को हवा में घुमाने के लिए भी जगह नहीं मिल पाती है। कुछ जेब गर्म हो जाए, उसी में ही संतुष्ट होकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती है। अनियोजित विकास से पटे छोटे शहरों की दुर्दशा के आगे पूरा तंत्र बेबस बना हुआ है। जिसका शिकार बेचारा आम आदमी हो जाता है, जिसे सिविक सेंस का पाठ पढ़ाने की बात केवल उपदेश तक सीमित रहती है। कूड़ा जहां मन करे वहां फैंक दिया जाता है। भूल जाते हैं कि इस कूड़े का भयानक परिणाम हो सकते हैं। तमाम बीमारियां इससे हो सकती हैं। फिर भी... हमारा देश महान है। इसे विश्व गुरु फिर से बनाया जाना है। कभी यह सोने की चिडिय़ा हुआ करता था, आज भ्रष्टाचार से ग्रस्त है। फिर भी नेता, समाज सेवक, अध्यात्मिक गुरु, दर्शनशास्त्री, विचारक, चिंतक, प्रोफेसर ऐसे भाषण देते हैं कि कुछ हो न हो, बेहतर भारत की तस्वीर को केवल मानसिक स्तर पर सोचकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।

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