Friday, September 24, 2010
प्रकृति की विनाशलीला में जिन्दगी की आस...
बारिश....बारिश....और बारिश। लगातार घनघोर बारिश ने उत्तराखंड का छह जनपदों के मंडल कुमाऊं को तबाह कर दिया है। हजारों लोगों के सपनों के घर मिट्टी में मिल गये हैं। खेत उजड़ गये हैं। बच्चों के सैकड़ों स्कूल ढह गये हैं। नदी, नाले व गधेरों में पानी उफान पर है। गांवों में सिलेंडर, केरोसिन ऑयल, पेट्रोल कुछ भी नहीं पहुंच पा रहा है। इन पदार्थों को हवाई सेवा के माध्यम से भी पहुंचाना मुश्किल हो गया है। आसपास के स्कूल, पंचायत घर व किसी परिजन व रिश्तेदार की शरण में आसमान को ताकते-ताकते एक-एक दिन व्यतीत करना मुश्किल हो गया है। १३५ से अधिक व्यक्ति अकाल ही काल कवलित हो गये हैं। जिन्दगी अभिशाप बन गयी है। खूबसूरत ऊंची-नीची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत के निवासियों की जिन्दगी अब त्राहि-त्राहि कर रही है। पहले से ही विषम भौगोलिक परिस्थिति में जैसे-तैसे गुजर बसर कर रहे क्षेत्रीय लोगों का एक-एक पल कचोट रहा है। कई घरों के चिराग बुझ गये हैं, किसी के पति को किसी की पत्नी, किसी के माता-पिता प्रकृति की इस भीषण विभीषिका का शिकार हो चुके हैं। उनके सपनों का घर मिट्टी में मिल चुका है। उनके जानवर बह गये हैं। इन सुरम्य वादियों के बीच असंख्य देवी देवताओं के आस्था व श्रद्धा के प्रतीक मंदिरों में जिन्दगी की भीख मांगते हुए लोगों का करुण क्रंदन आहत करने वाला है। दूसरे राज्यों में नौकरी करने वाले यहां के बाशिंदे असहाय हैं, जो घर आये थे, उनका बाहर निकलना दूभर हो गया है। तिल-तिल कर तड़पाने वाला प्रकृति का कोप किसी के समझ से परे हैं। मैदानी क्षेत्र ऊधम सिंह नगर का आधा से अधिक हिस्सा पूरी तरह पानी में डूबा हुआ है। अविराम वृष्टि से दो दर्जन से अधिक गांव पूरी तरह नष्ट हो गये हैं। इस तरह की भयंकर आपदा पहले कब आयी थी, बुजुर्गों को भी पता नहीं। आपदा प्रबंधन के नाम पर स्वयं की पीठ थपथपा रहे राजनेताओं को जमीनी हकीकत से तो कोई सरोकार नजर नहीं आता है लेकिन आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए, उसी आधार पर मीडिया में बयानबाजी की जा रही है। राज्य की इस भयंकर विनाशलीला का आकलन करने में असमर्थ राज्य सरकार को केन्द्र सरकार द्वारा ५०० करोड़ रुपये की आर्थिक पैकेज तो दे दिया, लेकिन अब इस धन का बेघर लोगों के लिए घर बसाने, सड़कें बनाने, स्कूल भवन बनाने, चिकित्सा सुविधा मुहैय्या कराने, महामारी से बचाने और रोजी-रोटी उपलब्ध कराने के लिए कितना सदुपयोग होता है। यह तो धीरे-धीरे पता चलेगा। लेकिन, घोटालों के इस प्रदेश में राजनेताओं व नौकरशाहों की गिद्द दृष्टि से बचते हुए पीडि़तों पर कितना मरहम लग पायेगा। इसे देखना होगा...।
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आफ़त सबने देखी - सुनी
ReplyDeleteहम भोग रहे हैं ...
बी एस एन एल के टावर -'रावण' के जले पुतले के अवशेष से दिखते रहे -- अन्य कंपनियों के 'सिम' 'ब्लैक' में बिकते रहे.१०८ मोबाइल नहीं थी -कुछ चार्ज लेकर 'मोबाइल' चार्ज कर रही थी ,
क्योंकि बिजली के तारों में करंट नहीं था - 'पानी' में था .........बिजली के पोल पानी में थे - जो विभाग की 'पोल' बिना ढोल खोल रहे थे .....अधिकारी रात की ख़ुमारी के साथ अपनी खोल में थे .......
''माटी'' का तेल 'सोना' हो गया - आदमी दूकानदार के हाथ का खिलौना हो गया ....आटा २५ ,चीनी ४० ,सब्ज़ी का तो रोना हो गया .....लाला,चक्कीवाला और कोटेदार जो मिले ,राशन का 'दाना' बेगाना हो गया ..... ख़बरें तो उड़ती हैं ....उड़कर चली आती हैं .....अखबार तो गाड़ी से ही आएगा -- दरार वाले घर में 'बूबू' हैं बेक़रार ...मटमैले पानी में नेताजी का कुरता - साबुन का प्रचार ...'सफेदी की चमकार' ..... इंतज़ार ........कौन लगाएगा बेड़ापार...... बदरवा बैरी हो गए हमार ...ना कोई इस पार हमारा ...ना कोई उस पार ......
BEHTREEN POST.
ReplyDeleteDHERON SHUBHKAMNAYEN!
Sudhanshu tripathi
गणेश भाई, बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई. बाढ़ की विभीषिका को शब्दों में बांधकर आपने जो जज्बात पेश किये हैं, उनको पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस बार पहाड़ पर आफत और मुसीबतों की बारिश हुई है. साथ ही आपने सफेदपोशों पर जो सवाल छोड़ा है, उसके जवाब का सभी को इंतजार है. वाकई यह देखने वाली बात होगी कि आपदा पीड़ितों के ज़ख्मों पर वास्तव में कितना और कितनी जल्दी मरहम लगता है.
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