वीरान सा लगने लगा गांव
गणेश जोशी
वाह! कितना खूबसूरत था मेरा गांव। 'एकता की ताकतÓ कहावत को चरितार्थ करता था। गोपेश्वर नदी से कुछ दूरी पर स्थित गांव सिमकूना जनपद मुख्यालय बागेश्वर से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित है। ग्रामीणों की देवी-देवताओं में पूरी आस्था थी। एक दूसरे पर अटूट विश्वास था। परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय व अनुसूचित जाति के बीच भेदभाव तो था लेकिन आपसी रिश्ता इतना प्रेमपूर्वक था कि सभी लोग एक दूसरे के कार्य में सहयोग अवश्य करते थे। प्रत्येक के सुख-दु:ख में भागीदार रहते थे।
किसी घर में शादी हो या किसी की छत डालनी हो, सभी एकजुट होकर मनोयोग से हंसी-खुशी कार्य संपन्न कराते थे। इस आनंदमयी माहौल में एक दूसरे के प्रति लगाव व आत्मीयता साफ झलकती थी। कठिन से कठिन कार्य व भारी से भारी सामान उठाना हो तो सभी लोग इस कार्य को सहजता से संपन्न कराते थे। गांव की बेटी को शादी के समय विदा करना हो या किसी बीमार व्यक्ति को 15 किलोमीटर दूर अस्पताल में ले जाने के लिए लिए मुख्य सड़क तक पहुंचाना हो, ग्रामीण डोली में पहुंचा आते थे। एक व्यक्ति की पीड़ा सभी महसूस करते थे। किसी के घर में गाय या भैंस 'ब्याताÓ था तो आसपास घरों के सभी बच्चों को 'बिगौतÓ खाने के लिए बुलाया जाता था। ग्रामीणों के क्रियाकलाप कृषि व पशुपालन ही मुख्य था। करीब एक हजार परिवार की आबादी वाले गांव के अधिकांश लोग फौज में थे तो कुछेक शिक्षक। चार-पांच पीढ़ी तक के लोग एक ही बाखली में रहते थे। सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। अभाव की तो अनुभूति ही नहीं होती थी। यद्यपि जीवन संघर्षपूर्ण एवं अभावों से ग्रस्त था। इसके बावजूद ग्रामीणों का जीवन चिंतामुक्त होता था। न अधिक सुखभोग की महत्वाकांक्षाएं होती थी और न ही उनको प्राप्त करने के लिए बेहताशा भागदौड़ भरी जिन्दगी थी। सभी लोग प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं से संतुष्ट थे। बहुत समय नहीं हुआ है, विकास की चकाचौंध ने, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ईष्र्या, द्वेष भाव इतना प्रबल हो गया है कि आज मेरा प्यारा सा गांव भी इसकी चपेट में है। संयुक्त परिवार गांव से ही टूटने लगे। भले ही मेरे गांव में बिजली है और घर तक सड़क भी पहुंच गयी है। पानी की व्यवस्था भी है। अधिकांश घरों में डीटीएच के माध्यम से टीवी चल रही है। अधिकांश ग्रामीणों के पास मोबाइल फोन की सुविधा भी उपलब्ध हो गयी है। नजदीक में सरकारी प्राथमिक विद्यालय है। फिर भी यह गांव पलायन की पीड़ा झेल रहा है। घरों में ताले लटके हैं और निरीह घर टूटने की कगार पर हैं। गांव में अब न पहले जैसी रौनक रही और न वैसी आत्मीयता। अब न तो किसी का मन खेती करने में लगता है और न ही पशुपालन में। शराब की बेतहाशा लत ने ग्रामीणों के अपने आपसी रिश्ते को तार-तार कर दिया। अब एक दूसरे पर विश्वास नहीं दिखता है। महत्वपूर्ण पर्व होली का इंतजार जहां पहले बाहर नौकरी करने वालों को बेसब्री से रहता था, वहीं अब गांव के लोगों में ही इसका क्रेज नहीं दिखता है। छह साल बाद गांव में होली के लिए घर गया तो रास्ते में ही आसपास गांव के युवकों ने मुझे लूटने का प्रयास किया। विकास के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं है। 15 किलोमीटर दूर गांव में स्वास्थ्य केन्द्र है, इसमें भी चिकित्सक शायद ही उपलब्ध रहता है। बाकी चिकित्सा सेवा झोलाछाप डाक्टरों के हवाले है। प्राइमरी से ऊपर तक की शिक्षा के लिए कई किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता है। स्वरोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। कृषि व पशुपालन के लिए भी बेहतर व्यवस्था नहीं है। पूरी तरह मौसम पर आधारित खेती से ग्रामीणों के लिए तीन महीने तक राशन उपलब्ध नहीं हो पाता है। अंधाधुंध कटान से सूखे जंगलों के कारण पशुओं के लिए चारा तक नसीब नहीं हो रहा है। अज्ञानता, अशिक्षा के कारण नौजवान गलत दिशा की ओर भटकने को मजबूर है। राज्य सरकार व केन्द्र सरकार की हवाई व लोक लुभावन घोषणाओं की पोल खोलता गांव न जाने कब तक विकास की बाट जोहता रहेगा। गांव में सांसद वोट मांगने के अलावा कभी पहुंचे होंगे। यही हाल स्थानीय विधायक का भी है।
गणेश जोशी
वाह! कितना खूबसूरत था मेरा गांव। 'एकता की ताकतÓ कहावत को चरितार्थ करता था। गोपेश्वर नदी से कुछ दूरी पर स्थित गांव सिमकूना जनपद मुख्यालय बागेश्वर से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित है। ग्रामीणों की देवी-देवताओं में पूरी आस्था थी। एक दूसरे पर अटूट विश्वास था। परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय व अनुसूचित जाति के बीच भेदभाव तो था लेकिन आपसी रिश्ता इतना प्रेमपूर्वक था कि सभी लोग एक दूसरे के कार्य में सहयोग अवश्य करते थे। प्रत्येक के सुख-दु:ख में भागीदार रहते थे।
किसी घर में शादी हो या किसी की छत डालनी हो, सभी एकजुट होकर मनोयोग से हंसी-खुशी कार्य संपन्न कराते थे। इस आनंदमयी माहौल में एक दूसरे के प्रति लगाव व आत्मीयता साफ झलकती थी। कठिन से कठिन कार्य व भारी से भारी सामान उठाना हो तो सभी लोग इस कार्य को सहजता से संपन्न कराते थे। गांव की बेटी को शादी के समय विदा करना हो या किसी बीमार व्यक्ति को 15 किलोमीटर दूर अस्पताल में ले जाने के लिए लिए मुख्य सड़क तक पहुंचाना हो, ग्रामीण डोली में पहुंचा आते थे। एक व्यक्ति की पीड़ा सभी महसूस करते थे। किसी के घर में गाय या भैंस 'ब्याताÓ था तो आसपास घरों के सभी बच्चों को 'बिगौतÓ खाने के लिए बुलाया जाता था। ग्रामीणों के क्रियाकलाप कृषि व पशुपालन ही मुख्य था। करीब एक हजार परिवार की आबादी वाले गांव के अधिकांश लोग फौज में थे तो कुछेक शिक्षक। चार-पांच पीढ़ी तक के लोग एक ही बाखली में रहते थे। सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। अभाव की तो अनुभूति ही नहीं होती थी। यद्यपि जीवन संघर्षपूर्ण एवं अभावों से ग्रस्त था। इसके बावजूद ग्रामीणों का जीवन चिंतामुक्त होता था। न अधिक सुखभोग की महत्वाकांक्षाएं होती थी और न ही उनको प्राप्त करने के लिए बेहताशा भागदौड़ भरी जिन्दगी थी। सभी लोग प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं से संतुष्ट थे। बहुत समय नहीं हुआ है, विकास की चकाचौंध ने, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ईष्र्या, द्वेष भाव इतना प्रबल हो गया है कि आज मेरा प्यारा सा गांव भी इसकी चपेट में है। संयुक्त परिवार गांव से ही टूटने लगे। भले ही मेरे गांव में बिजली है और घर तक सड़क भी पहुंच गयी है। पानी की व्यवस्था भी है। अधिकांश घरों में डीटीएच के माध्यम से टीवी चल रही है। अधिकांश ग्रामीणों के पास मोबाइल फोन की सुविधा भी उपलब्ध हो गयी है। नजदीक में सरकारी प्राथमिक विद्यालय है। फिर भी यह गांव पलायन की पीड़ा झेल रहा है। घरों में ताले लटके हैं और निरीह घर टूटने की कगार पर हैं। गांव में अब न पहले जैसी रौनक रही और न वैसी आत्मीयता। अब न तो किसी का मन खेती करने में लगता है और न ही पशुपालन में। शराब की बेतहाशा लत ने ग्रामीणों के अपने आपसी रिश्ते को तार-तार कर दिया। अब एक दूसरे पर विश्वास नहीं दिखता है। महत्वपूर्ण पर्व होली का इंतजार जहां पहले बाहर नौकरी करने वालों को बेसब्री से रहता था, वहीं अब गांव के लोगों में ही इसका क्रेज नहीं दिखता है। छह साल बाद गांव में होली के लिए घर गया तो रास्ते में ही आसपास गांव के युवकों ने मुझे लूटने का प्रयास किया। विकास के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं है। 15 किलोमीटर दूर गांव में स्वास्थ्य केन्द्र है, इसमें भी चिकित्सक शायद ही उपलब्ध रहता है। बाकी चिकित्सा सेवा झोलाछाप डाक्टरों के हवाले है। प्राइमरी से ऊपर तक की शिक्षा के लिए कई किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता है। स्वरोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। कृषि व पशुपालन के लिए भी बेहतर व्यवस्था नहीं है। पूरी तरह मौसम पर आधारित खेती से ग्रामीणों के लिए तीन महीने तक राशन उपलब्ध नहीं हो पाता है। अंधाधुंध कटान से सूखे जंगलों के कारण पशुओं के लिए चारा तक नसीब नहीं हो रहा है। अज्ञानता, अशिक्षा के कारण नौजवान गलत दिशा की ओर भटकने को मजबूर है। राज्य सरकार व केन्द्र सरकार की हवाई व लोक लुभावन घोषणाओं की पोल खोलता गांव न जाने कब तक विकास की बाट जोहता रहेगा। गांव में सांसद वोट मांगने के अलावा कभी पहुंचे होंगे। यही हाल स्थानीय विधायक का भी है।
achha laga..........
ReplyDeleteye sirf ek villege ki story nahi hai. pahad k villege veeran ho rahe hain.shahar ki it kranti ki avohwa yanha tak jarur pahunch gai ho but soch main badlaw nahi aa saka hai. easka sabse bada karan hai yanha leader ka na hona. leader means jo youth ko sahi disa de sake, use bataye kiya sahi hai nd kiya galat. wo age badhkar morcha le. ham ab bi andhvishwash k makad jaal main fanse huwe hain. esse bahar aana hi hoga. naveen. p
ReplyDeleteye sirf 1 villege ki bat nahi hai. pahad veeran hota ja raha hai. education ka level uncha hone k bad b soch main change nahi aa paya hai.pahad ko bachana hai to youth ko jagruk karna hoga. unhe rojgar k awsar dene honge. media ko b wanha tak jana hoga.
ReplyDeletepapnai navin