Monday, October 8, 2012

कुमाऊंनी रामलीला में परंपरा की मर्यादा



  • सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला आज विदेशों में भी कुमाऊंनी संस्कृति को समृद्ध बना रही है। कभी यह पेट्रोमैक्स व लालटेन की रौशनी में होती थी, मगर अब इस पर आधुनिक तकनीक का रंग चढ़ गया है।


    मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की लीला के मंचन की कुमाऊंनी परंपरा भी मर्यादाओं से बंधी है। पारसी रंगमंच की छाप और दादरा, कहरवा, रूपक तालों में निबद्ध शास्त्रीय गीतों से सजी कुमाऊंनी रामलीला की परंपरा को मजबूत बनाने के लिए ही पहले तालीम दी जाती है। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से शुरू हुई रामलीला आज विदेशों में कुमाऊंनी संस्कृति को समृद्ध बना रही है। कभी यह पेट्रोमैक्स व लालटेन की रौशनी में होती थी, मगर अब इस पर आधुनिक तकनीक का रंग चढ़ गया है।
    19वीं शताब्दी से कुमाऊं में श्री रामलीला का मंचन शुरू हुआ। माना जाता है कि सबसे पहले 1860 में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में रामलीला मंचन की शुरुआत हुई। उसे संचालित कराने में तत्कालीन डिप्टी कलक्टर देवीदत्त जोशी का विशेष योगदान रहा। धीरे-धीरे कुमाऊंनी शैली में गाई जाने वाली रामलीला का प्रचलन बढ़ता गया। अल्मोड़ा के अलावा पिथौरागढ़, बागेश्वर, हल्द्वानी, बरेली व लखनऊ और अब दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ आदि शहरों में मंचन होता है। दरअसल, जहां-जहां कुमाऊंनी लोग गए, कुमाऊंनी शैली की रामलीला को भी साथ ले गए। हालांकि लालटेन की रौशनी में होने वाली रामलीला में अब माइक और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल होने लगा है। कुमाऊंनी रामलीला में गीत दादरा (6 मात्रा), रूपक (7 मात्रा), कहरवा (8 मात्रा), चांचर आदि तालों में निबद्ध होते हैं। हालांकि कहीं-कहीं गद्य शैली में भी संवाद बोले जाते हैं। वाचक अभिनय की रामलीला में बीच-बीच में हास्य पुट भी रहता है। अल्मोड़ा में 1940-41 में नृत्य सम्राट पं. उदयशंकर ने भी रामलीला मंचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

    मुस्लिम कलाकारों का योगदान
    कुमाऊंनी रामलीला में मुस्लिम कलाकारों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इतिहासकार प्रो. गिरिजा पांडे बताते हैं कि चंद वंश के शासन में मुस्लिम कलाकार थे। उन्होंने रामलीला में संगीत दिया। तालीम कराई। पुतले बनाने जैसी परंपरा विकसित की। तभी से यह रामलीला सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक मानी जाती है।

    ब्रज के लोकगीत व नौटंकी की झलक
    कुमाऊं के वाद्य यंत्र ढोल, दमाऊं, तुरतुरे हैं, लेकिन रामलीला मंचन में इनका प्रयोग नहीं होता। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि बाहर से आए संगीतकारों ने रामलीला में भी हारमोनियम, तबला आदि वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया, जिससे इसका संगीत समृद्ध हुआ। इसमें ब्रज के लोकगीत और नौटंकी की झलक भी देखने को मिलती है।

    पारसी थिएटर व मथुरा शैली की छाप
    कुमाऊंनी रामलीला में पात्रों के आभूषणों, परदों व श्रंगार में मथुरा शैली का नजारा देखने को मिलता है। साथ ही दो सदियों तक बेहद समृद्ध रहे पारसी रंगमंच की झलक भी मिलती है।

2 comments:

  1. गीत-संगीत से सरोबर कुमाउनी रामलीला भले ही आज देश के अन्य भागों में भी आयोजीत की जा रही है किन्तु वहां पर इसका मूल स्वरूप देखने को नहीं मिलता है शायद वहां की स्थानीय भाषा या फिर तौर-तरीके इसके कारण हो, अतीत में स्वयं मैं भी स्थानीय स्तर पर कुमाउनी रामलीला से जुड़ा रहा हूँ और कई छोटी -बड़ी कई भूमिकाएं भी निभा चुका हूँ, बावजूद इसके हुक्का क्लब अल्मोड़ा की रामलीला ने काफी प्रभावित किया है, कुमाउनी रामलीला से सम्बंधित कई जानकारियां आपने पोस्ट के माध्यम से साझा की जिस हेतु आपका आभार व्यक्त करता हूँ.......

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