Friday, August 10, 2012

न होमवर्क, न डांट और न पढ़ाई




सरकारी विद्यालयों के ये बच्चे कुछ पढ़े या न पढ़ें कक्षा आठ तक उत्तीर्ण कर देते हैं। ये बच्चे न ही होमवर्क करते हैं और न ही कक्षा में मन लगाते हैं। आठ तक पहुंच जाने के बाद भी अधिकांश बच्चेे अपना नाम लिखना तक नहीं जानते हैं।

गांवों में सरकारी स्कूल होते थे। विद्यार्थी मन लगाकर अध्ययन करते थे। सीखने की ललक होती थी। ये बच्चे भी आईएएस, पीसीएस से लेकर बड़े अधिकारी बनते थे। होमवर्क देते थे तो पूरा करके लाते थे। पढ़ाई न करने और शरारत करने पर पिटाई भी होती थी। इसमें बच्चों को कोई शिकायत नहीं होती थी। शिक्षक भी मन लगाकर पढ़ाते थे। परीक्षा परिणाम के आधार पर ही फेल व पास किया जाता था।
अब अचानक क्या हो गया। पता नहीं। गांव में उन्हीं के बच्चे पढ़ते हैं, जो कहीं नहीं जा सकते हैं। जिनके पास दो वक्त की रोटी भी खाने को नहीं है। मजदूरी करते हैं। बटाईदारी करते हैं। या फिर मजबूरी में स्कूल भेजना हो या शिक्षक अपनी नौकरी के लिए उन्हें जबरदस्ती स्कूल में बुला ले। अब अनुपस्थित होने पर न ही नाम काट सकते हैं और न ही फेल कर सकते हैं। शरारत करने पर डांट भी नहीं सकते हैं। सरकारी स्कूलों के ये बच्चे कुछ पढ़े या न पढ़ें कक्षा आठ तक उत्तीर्ण कर देते हैं। ये बच्चे न ही होमवर्क करते हैं और न ही कक्षा में मन लगाते हैं। आठ तक पहुंच जाने के बाद भी अधिकांश बच्चेे अपना नाम लिखना तक नहीं जानते हैं। बरेली रोड के एक स्कूल में हाईस्कूल बोर्ड का फार्म भरवाते समय कक्षा 10 के कुछ बच्चे अपने पिता का नाम तक सही से नहीं लिख सके। मिड-डे-मील के नाम पर थाली लेकर पहुंच तो जाते हैं लेकिन कक्षा में मन नहीं लगाते हैं। माता-पिता भी बच्चों की पढ़ाई से बेखबर रहते हैं। प्राथमिक से जूनियर में आ जो हैं तो 35 मिनट के पीरियड में क्या अंग्रेजी सिखाएं और क्या गणित में फ्रैक्शन का अभ्यास कराएं।
अच्छी-खासी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक भी महज खानापूर्ति के लिए विद्यालय आते हैं। अब शिक्षकों का मन भी पढ़ाने में नहीं लगता है। कुकुरमुत्ते की तरह शिक्षक संगठनों के नेता ट्रांसफर के लिए तो गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते हैं लेकिन बच्चों की पढ़ाई को दुरुस्त करने के लिए नीति-नियंताओं को कोसते हैं। अब शिक्षक 35 मिनट की कक्षा में ध्यान देने के बजाय धन कहां से कमाया जाय, इस पर अधिक फोकस करता है। इधर, सर्वशिक्षा अभियान के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बाद भी शिक्षा विभाग राष्ट्रीय कार्यक्रम के नाम पर अधिकांश शिक्षकों की ड्यूटी कभी जनगणना, मतगणना, बालगणना से लेकर कभी पशुगणना में लगा दी जाती है।
शिक्षा अधिकारी अगर निरीक्षण को पहुंच गए तो विद्यालयों में सर्व शिक्षा अभियान के तहत खर्च की जाने वाली राशि को ठिकाने लगाने के लिए भरे गए रजिस्टरों को देखने से ही फुर्सत नहीं मिलती है। इसके बाद हाथ झाड़कर चल देते हैं। इस स्थिति में इंडिया शाइनिंग का क्या मतलब है। नीति-निर्धारक पता नहीं क्या नीतियां बना रहे हैं और किसके लिए? बुधवार को जागरण टीम जब प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों से स्वतंत्रता दिवस के बारे में पूछने गई तो पूरी व्यवस्था को लेकर ही कुछ शिक्षकों के अंदर की पीड़ा अभिव्यक्त हो गई। स्वयं भी शिक्षकों ने समय काटने की बात कहकर अपना नाम न छापने की शर्त रख दी।

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