अगर हकीकत में प्रशिक्षण आपदा प्रबंधन के लिए होता तो राज्य में आई भीषण आपदा के प्रबंधन में नाम मात्र का सहयोग तो अवश्य होता। उत्तराखंड में बादल फटने से बेहिसाब बारिश, कहर बरपाने वाले भूस्खलन के बाद जैसे आपदा कुप्रबंधन की पीड़ा पूरे देश ने झेली, इस पर मरहम तो लग सकता था।
गणेश जोशी
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएं भूस्खलन, बादल फटना, बाढ़ आना, भूकंप आना सामान्य प्रक्रिया है। अक्सर इन आपदाओं से राज्यवासियों को जूझना पड़ता है। इससे जहां हजारों मौतें हो जाती हैं। मकान ध्वस्त हो जाते हैं। खेत बह जाते हैं। सड़क मार्गों का संपर्क टूट जाता है। इसके बावजूद विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले राज्य में आपदा प्रबंधन केवल कागजों तक सीमित है। जबकि आपदा प्रबंधन के नाम पर समय-समय पर कार्यशालाएं होती हैं। सम्मेलनों में आपदा प्रबंधन के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। यहां तक मॉक ड्रिल का दिखावा होता है। बाकायदा शिक्षण संस्थानों में लाखों रुपए खर्च कर प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां तक आपदा प्रबंधन विभाग ने भी जिला स्तर पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। जब हकीकत में उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा ने अपना असली रूप दिखाया तो सारा सिस्टम ध्वस्त हो जाता है। सरकार असहाय हो गई। सामाजिक संगठन लुप्त हो गए। राज्य के 7000 से अधिक राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयं सेवक कहीं नहीं दिखे। करीब 10 हजार राष्ट्रीय कैडेट कोर, आठ हजार रोवर रेंजर्स और पांच हजार स्काउट गाइड के कथित प्रशिक्षित सदस्य नजर नहीं आए। इन्हें दिया जाना वाला प्रशिक्षण केवल औपचारिकता भर रह गया। राज्य में इतनी संख्या में पढ़ाई कर रहे नौजवानों को जब आपदा का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, तब प्रशिक्षण देने वाला और प्राप्त करने वाले के मन में केवल माक्र्स बढ़ाने के टूल के रूप में इसे इस्तेमाल किया गया होगा। अगर हकीकत में प्रशिक्षण आपदा प्रबंधन के लिए होता तो राज्य में आई भीषण आपदा के प्रबंधन में नाम मात्र का सहयोग तो अवश्य होता। उत्तराखंड में बादल फटने से बेहिसाब बारिश, कहर बरपाने वाले भूस्खलन के बाद जैसे आपदा कुप्रबंधन की पीड़ा पूरे देश ने झेली, इस पर मरहम तो लग सकता था। पर, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। इस विभीषिका के बाद विद्यालयों में माक्र्स बढ़ाने के टूल्स के रूप में उपयोग होने वाले आपदा प्रबंधन के प्रशिक्षण पर ही सवाल उठने लगे।
राष्ट्रीय सेवा योजना के राज्य संपर्क अधिकारी डा. आनंद सिंह उनियाल कहते हैं कि चारधाम यात्रा मार्ग वाले जनपदों के छह-छह स्वयंसेवक और कुमाऊं के छह जनपदों के तीन-तीन स्वयंसेवकों को आपदा प्रबंधन का विशेष प्रशिक्षण दिया गया। इसमें आपदा से पहले, आपदा के समय और बाद में किस तरह का प्रबंधन करना है, इसका प्रशिक्षण दिया गया। लेकिन, भयंकर आपदा के समय हमारे स्वयंसेवक कुछ नहीं कर सके। डा. उनियाल सवाल उठाते हैं कि संसाधन नहीं मुहैया कराए जाते हैं। ऐसी स्थिति में एनएसएस के स्वयंसेवक आपदा राहत के लिए कैसे जा सकते हैं? हम हैंडीकैप्ड की तरह हो गए। कहते हैं कि आपदा प्रबंधन को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। युवा कॅरियर बना सके। इसमें डिजास्टर इंजीनिरिंग की पढ़ाई होनी चाहिए। राजकीय महिला महाविद्यालय के प्राचार्य डा. गंगा सिंह बिष्ट कहते हैं कि औपचारिक पढ़ाई से आपदा प्रबंधन का कोई तर्क नहीं है। वास्तव में युवा तभी आपदा प्रबंधन के लिए तैयार होंगे, जब उन्हें अनिवार्य रूप से इसके लिए तैयार किया जा सके।
स्काउट गाइड के जिला सचिव राजीव शर्मा कहते हैं कि अगर इतने युवाओं को प्रशिक्षण की खानापूर्ति नहीं की होती तो हम आपदा राहत से निपटने के लिए तैयार होते। अक्सर देखा गया है कि आपदा से ज्यादा आपदा कुप्रबंधन से मौतें होती हैं। पर्यावरण शिक्षा के साथ इस विषय को अनिवार्य कर देना चाहिए।
सेंट लॉरेंस की प्रधानाचार्य अनीता जोशी कहती हैं कि इस समय हम लोग किताबी ज्ञान पर अधिक ध्यान दे रहे हैं, जबकि जरुरत है आपदा प्रबंधन जैसे विषयों को गहराई से पढ़ाने की, जिससे भविष्य में युवक स्वयं की रक्षा के साथ ही दूसरों की जान बचाने के लिए भी आगे आ सके। एमबी पीजी कालेज का रोवर कुमार हर्षित भी संयोग से 15 जून को विभिन्न प्रांतों के भारत स्काउट एवं गाइड्स के 70 रोवर रेंजर्स के साथ 10 दिवसीय ट्रेकिंग व पर्यावरण अध्ययन के लिए जोशीमठ में थे। अगले दिन 16 जून को गोविंदघाट केलिए चले। हर्षित बताते हैं कि रात में अलकनन्दा का स्तर लगातार बढऩे लगा। जो तीर्थयात्री और हमारे साथी पहली बार उस मंजर को देख रहे थे, वे घबरा गये। चारों ओर चीख पुकार मच गयी। सबसे बड़ी बात यह है कि हम लोगों ने हिम्मत तो रखी लेकिन हमारे पास संसाधन नहीं थे। हम दूसरों को भी बचाना चाहते थे। कहते हैं, आपदा प्रबंधन लिए वर्तमान में जितना सिखाया जा रहा, यह कम है। बीटेक का छात्र रवि उपाध्याय कहते हैं कि दुनिया के कई देशों में नागरिकों को हर परिस्थिति के लिए तैयार किया जाता है लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं है। सीए कर रहे सौरभ जोशी कहते हैं कि स्कूली शिक्षा से ही आपदा प्रबंधन पढ़ाया जाना चाहिए। हम केवल प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, इसे बचाने और इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ठोस उपाय नहीं है।
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