असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं।
आज समाज में जिधर भी नजर दौड़ाएं, बुराईयां ही बुराईयां दिख रही हैं। आम से खास हर कोई किसी न किसी 'रावणÓ से परेशान है। कलयुग का यह रावण सबसे अधिक मानवता के नैतिक पतन के रूप में उभरा है, जिसके चलते भ्रष्टाचार, नशाखोरी, मिलावटखोरी, गैर बराबरी, अशिक्षा, अज्ञानता जैसी तमाम समस्याएं मुंह बाएं सुरसा की तरह खड़ी हो गई हैं। समाज में तेजी से पनपते रावण और इसके लिए समाधान को लेकर चर्चाएं भी हो रही हैं। गोष्ठियां हो रही हैं। संत-महात्मा से लेकर नेता तक बड़े-बड़े मंचों से उपदेश दिए जा रहे हैं। बाकायदा सेमिनारों का आयोजन हो रहा है। इसके लिए विजयदशमी का सबसे बड़ा उत्सव मनाया जाता है। इस दिन बड़े से बड़े रावण के पुतले जलाने की होड़ सी मच जाती है। जमकर आतिशबाजी होती है। इस पुतले जलने से ही बुराईयों का अंत मान लिया जाता है। असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं। ऐसा आखिर क्यों हो रहा है? हर साल रावण के रूप में हम बुराई के अंत का ढींढोरा पीटते हैं लेकिन अपने भीतर की गंदगी को झांकते तक नहीं हैं। राग, द्वेष, छल, कपट, दुष्कर्म, फरेब, ठगी, लालच जैसे कुकर्म व्यक्ति को छोड़ ही नहीं पाते हैं। शायद व्यक्ति ही इनसे निवृत ही नहीं होना चाहता है। शायद हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं।
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