Monday, November 8, 2010

जरूरत राहत सामग्री की ही नहीं, जागरूकता की भी...

        नैनीताल जनपद के धारी ब्लाक के पहाड़पानी क्षेत्र, जिसके आधा दर्जन से अधिक गांव बारिश में तबाह हो गये थे। यह विभीषिका विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले गांवों में कूपमंडूक की तरह रहने वाले फटेहाल ग्रामीणों का जीवन और बदतर कर गया। इससे तो ग्रामीणों की बची-खुची जिन्दगी की आस भी खत्म हो गयी। इन बिखरे लोगों को राहत सामग्री तो पहुंचायी जा रही है लेकिन इससे ही इन लोगों की भूख कुछ दिनों के लिए तो मिट जाएगी लेकिन इन ग्रामीणों की जिन्दगी में उम्मीद के किरण फिर से दिखायी पड़ेंगे, नेताओं के केवल लोक लुभावन व लच्छेदार भाषणों से और प्रशासन की खानापूर्ति पूर्ण रवैये से तो दूर तक नजर नहीं आ रहा है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग आपदा से प्रभावित नहीं है वे भी शिक्षा, चिकित्सा और सबसे जरूरी हथियार जागरुकता से वंचित हैं।
शहर के कैमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन द्वारा पहाड़पानी के प्रभावितों को जब राहत सामग्री पहुंचायी जा रही थी, मैं भी वहां था। राहत सामग्री वितरण का कार्यक्रम राजकीय इंटर कालेज पहाड़पानी के प्रांगण में रखा गया था। यहां पर ग्रामीण पहले से ही टकटकी लगाये बैठे थे। हालांकि व्यवस्था बनाने के लिए क्षेत्र के कुछ जागरूक लोगों को पहले से ही वास्तव में बाढ़ से प्रभावित लोगों की सूची बनाने का कार्य सौंपा था। उन्होंने प्रधानपति से पूछकर सूची भी तैयार कर ली थी। सूची में 32 लोगों के नाम थे लेकिन जब सामग्री वितरित की गयी तो 45 से अधिक लोग हो गये। वहां पर देखते ही देखते सैकड़ों ग्रामीण एकत्रित हो गये। राहत सामग्री लेने के लिए मारामारी मच गयी। इसमें आश्चर्य की बात यह थी, जो लोग बाढ़ से प्रभावित थे, उन्हें तो सामग्री दी जा रही थी लेकिन जो प्रभावित नहीं थे, वे भी आपदा के नाम से वितरित की जा रही खाद्य सामग्री लेने को कतार में खड़े हो गये। पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीणों की यह स्थिति सोचने को मजबूर कर रही थी। इस दौरान मैंने वहां के कुछ लोगों से बात कर ग्राम प्रधान को बुलाने का आग्रह किया तो वे प्रधानपति को बुलाकर ले आये। प्रधानपति ने सिर झुकाकर कहा- 'मैंने जो लिस्ट देनी थी, पहले ही दे दी हैÓ इससे ज्यादा कुछ कहे बिना वह चल दिया। मैंने उसकी पीड़ा समझ ली, अगर वह वहां भीड़ में जरूरतमंद लोगों के ही नाम लेता तो उसका गांव में रहना मुश्किल हो जाता। इस बीच ही एक ग्रामीण जेब में देशी दारू की बोतल लिए राहत सामग्री लेने पहुंच गया। जब मेरी नजर उसके जेब में पड़ी तो, मैंने उससे पूछा यह क्या है? वह कुछ बोले बिना ही वहां से खिसक गया। इस दृश्य ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। उसके पास शराब के लिए रुपये हैं लेकिन शाम के समय खाने के लिए आटा, चावल व दाल का इंतजाम नहीं है। मुफ्त में मिल रही खाद्य सामग्री पर हाथ साफ करने पहुंच गया। जबकि हष्ट-पुष्ट दिखने वाला वह व्यक्ति अच्छा-खासा मेहनत कर रुपये कमा सकता है।
भारत के स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों के गांव आज भी भोगी व अवसरवादी नेताओं की अदूरदर्शिता से पिछड़ेपन का शिकार हैं। यहां निरक्षरता व अज्ञानता के चलते ग्रामीण भीख मांगने जैसी स्थिति में पहुंच चुके हैं। जबकि इन ग्रामीणों की उत्थान व इनके जीवन को सुधारने के लिए तमाम योजनाओं में करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं। इसके बावजूद परिणाम सिफर है। हर पांच साल बाद चुनावों में घोषणा पत्र तैयार होता है और विकास के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं।
लेकिन सबसे बड़ा चौंकाने वाली बात यह है कि जब कफन के पैसे पचा लिये जाते हैं, शहीदों की विधवाओं के फ्लैट हथिया लिये जाते तब ऊपर से नीचे बह रहे भ्रष्टाचार से आपदा का धन गिद्ध दृष्टि लगाये दलालों से कैसे बच जाएगा? यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

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