उत्तराखंड में सबसे अधिक कर्मचारियों वाले शिक्षा विभाग की ऐसी दयनीय स्थिति शायद पहले कभी नहीं देखी गई होगी। हां, यह जरूर था कि कहीं पर मानकों से ज्यादा शिक्षक कार्यरत रहे तो कहीं पर अधिक विद्यार्थी होने के बाद भी शिक्षक नहीं। इस समय धार्मिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी की कथित सख्त रवैये से ऐसा लग रहा था कि 13 जनपदों के सभी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में छात्र व शिक्षक का अनुपात दुरूस्त हो जाएगा, लेकिन यहां तो बिल्कुल उल्टा हो गया। पहले से ही उपेक्षित पहाड़ के विद्यालयों में शिक्षक भेजे जाने लगे, वह वहां जाने को तैयार नहीं। जिन विद्यालयों से उन्हें भेजा गया, वहां के विद्यालय शिक्षकविहीन हो गए। देश के भविष्य का निर्माण करने वाले सरस्वती के इन मंदिरों की दुर्दशा का भान शायद जमीनी स्तर से बहुत ऊपर से देखने की कोशिश कर रहे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को नहीं हो रहा होगा। अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षा अधिकारियों का हाल तो और भी बुरा है। स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं, तो यह नहीं पूछते कि पढ़ाई का क्या हाल है? सिर्फ एक सवाल उनके जुबान पर रहता है कि इस योजना का कितना बजट कहां खर्च हुआ? इस सवाल से उन्हें व्यक्तिगत लाभ तो होता ही है, बाकी जिम्मेदारियों से भी इतिश्री मान लेते हैं। इस समय कुमाऊं के अधिकांश विद्यालयों के बच्चों को शिक्षकों के लिए नेताओं की तरह सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने को बाध्य होना पड़ रहा है। छमाही परीक्षा सिर पर हैं। ऐसे हालातों में हम अपने बच्चों को कहां ले जा रहे हैं? एक करोड़ 86 लाख की आबादी वाले खूबसूरत राज्य के सपनों पर पलीता लगा रहे नेताओं को आखिर शिक्षा जैसे अहम मुददे को लेकर कब अक्ल आएगी? विषम भौगोलिक परिस्थिति वालेे इस छोटे में राज्य में राजनीतिक विषमता के इस दौर में भ्रष्ट, लाचार, असहाय और बेचारे नेताओं से किसी तरह की उम्मीद करना भी बेइमानी सा प्रतीत होने लगा है।
Monday, September 30, 2013
शिक्षा की बेहतरी के लिए नेताओं से खोखली उम्मीद
उत्तराखंड में सबसे अधिक कर्मचारियों वाले शिक्षा विभाग की ऐसी दयनीय स्थिति शायद पहले कभी नहीं देखी गई होगी। हां, यह जरूर था कि कहीं पर मानकों से ज्यादा शिक्षक कार्यरत रहे तो कहीं पर अधिक विद्यार्थी होने के बाद भी शिक्षक नहीं। इस समय धार्मिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी की कथित सख्त रवैये से ऐसा लग रहा था कि 13 जनपदों के सभी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में छात्र व शिक्षक का अनुपात दुरूस्त हो जाएगा, लेकिन यहां तो बिल्कुल उल्टा हो गया। पहले से ही उपेक्षित पहाड़ के विद्यालयों में शिक्षक भेजे जाने लगे, वह वहां जाने को तैयार नहीं। जिन विद्यालयों से उन्हें भेजा गया, वहां के विद्यालय शिक्षकविहीन हो गए। देश के भविष्य का निर्माण करने वाले सरस्वती के इन मंदिरों की दुर्दशा का भान शायद जमीनी स्तर से बहुत ऊपर से देखने की कोशिश कर रहे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को नहीं हो रहा होगा। अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षा अधिकारियों का हाल तो और भी बुरा है। स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं, तो यह नहीं पूछते कि पढ़ाई का क्या हाल है? सिर्फ एक सवाल उनके जुबान पर रहता है कि इस योजना का कितना बजट कहां खर्च हुआ? इस सवाल से उन्हें व्यक्तिगत लाभ तो होता ही है, बाकी जिम्मेदारियों से भी इतिश्री मान लेते हैं। इस समय कुमाऊं के अधिकांश विद्यालयों के बच्चों को शिक्षकों के लिए नेताओं की तरह सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने को बाध्य होना पड़ रहा है। छमाही परीक्षा सिर पर हैं। ऐसे हालातों में हम अपने बच्चों को कहां ले जा रहे हैं? एक करोड़ 86 लाख की आबादी वाले खूबसूरत राज्य के सपनों पर पलीता लगा रहे नेताओं को आखिर शिक्षा जैसे अहम मुददे को लेकर कब अक्ल आएगी? विषम भौगोलिक परिस्थिति वालेे इस छोटे में राज्य में राजनीतिक विषमता के इस दौर में भ्रष्ट, लाचार, असहाय और बेचारे नेताओं से किसी तरह की उम्मीद करना भी बेइमानी सा प्रतीत होने लगा है।
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