Thursday, December 30, 2010

गंदगी हमें शर्मशार नहीं करती...




प्रो. आरसी पंत
यह सुखद संयोग ही है कि आज भारत में हर दूसरा व्यक्ति 25 साल से कम उम्र वाला है। सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में कहें तो :
बूढ़े भारत में आई है (थी)
फिर से नई जवानी है (थी)
युवाओं के अपने सपने हैं और अपनी प्रतिबद्धताएं हैं, लेकिन कोई भी युवक या युवती मार्गदर्शक एवं संरक्षक की आवश्यकता से इन्कार नहीं कर सकता।
दैनिक जागरण द्वारा आयोजित गोष्ठी (समाज में युवाओं की भूमिका) विषय की व्यापकता एवं उपलब्ध समय को दृष्टिगत करते हुए मैं संक्षेप में कुछ समस्याओं की चर्चा करना चाहता हूँ और यह अपेक्षा करता हूँ कि युवावर्ग अवश्य ही इन पर विचार करेगा।
1. भारतीय समाज में सामाजिक चेतना की कमी :-
भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति के सापेक्ष सामाजिक चेतना की कमी, अभाव न भी कहें, प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। समाज के व्यापक हित में समाज की इकाई, प्रत्येक व्यक्ति एवं परिवार को अपने स्वार्थ की बलि देना नहीं होगा। यदि राष्ट्र को प्रगति करनी है तो प्रत्येक नागरिक को अपने परिवार के साथ ही लगाव व राष्ट्रहित के बीच में सामंजस्य बिठाना ही होगा। अपने व अपने परिवार के स्वार्थ को अपने समाज के हित की अपेक्षा अधिक तरजीह देने के कारण ही भारत लगभग एक हजार वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा रहा। यथा, अपने घर और परिसर की सफाई करके सार्वजनिक उपयोग के स्थानों पर कूड़ा डालने की दुष्प्रवृति इस मानसिकता का ही परिचायक है। पाश्चात्य मुल्कों में गलियों, पार्कों, शौचालयों में कहीं भी आपकों दीवारों में लिखा नहीं मिलता और न ही अन्य प्रकाश का कूड़ा करकट व गंदगी मिलती है। पान की पीक, तंबाकू की पीक, जहां मर्जी वहीं मलमूत्र विसर्जन, बीड़ी, सिगरेट के अधजले टुकड़े, अन्य प्रकार की गंदगी हमें शर्मशार नहीं करती। हम इसके आदी हैं। क्या आपने राष्ट्रमंडल खेलों में, खिलाड़ी-गाँव में व्याप्त गंदगी के बचाव में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन समिति के सचिव ललित भनोट के वक्तव्य पर गौर करके शर्म नहीं महसूस कि पाश्चात्य समाज और भारतीय समाज में सफाई के मानक भिन्न हैं।
2- भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार :-
सामाजिक हित के सापेक्ष अपने व अपने परिवार के हित को प्राथमिकता देने के कारण ही भारत में सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के वर्ष 2005 की रिपोर्ट में इस तथ्य का उल्लेख है कि प्रत्येक दो में से एक भारतीय नागरिक राशन कार्ड बनवाने, विवाह का प्रमाण पत्र बनवाने तथा थाने में एफआईआर लिखवाने जैसे कार्यों के लिए सरकारी मुलाजिमों को घूस देनी पड़ती है। करप्शन परसैप्शन इंडैक्स में वर्ष 2009 में 180 मुल्कों में भारत का स्थान 84 वां था। भ्रष्टाचार की मार सबसे अधिक गरीबों को झेलनी पड़ती है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन निर्वाह करने वाले भारतीय नागरिकों को प्रतिवर्ष नौ अरब रुपये घूस के रूप में उन कामों को करने के लिए खर्च करने पड़ते हैं, जिन्हें उनके मुफ्त में करवाने का अधिकार है। ग्लोबल फाइनेंनसियल इंटीग्रिटी के अनुसार वर्ष 2000-2008 के बीच भारत से 125 अरब अमेरिकन डालर का कालाधन विदेश में चला गया।
भारत में भ्रष्टाचार टैक्स चोरी, धोखाधड़ी एवं घूसखोरी आदि समाज की जड़ों को दीमक की ही भांति खोखला कर रहा है। ठेकेदार सरकारी अधिकारियों को घूस देकर घटिया सड़कें व पुल बनाते हैं। दुर्भाग्य से आज यह स्थिति है कि जो जितना भ्रष्ट है उसे उसे समाज में उतना ही सम्मान मिल जाता है। इस समय दुष्चरित्र व्यक्ति ही समाज में समादृत है। युवा वर्ग को इस स्थिति को बदलना चाहिये।
3- पेशेवराना अंदाज :-
किसी भी पेशे में सफल होने के लिए अनुशासन अत्यंत महत्वपूर्ण है। कार्य के प्रति निष्ठा, समय की पाबंदी, व्यक्तिगत निष्ठा के स्थान पर सामाजिक निष्ठा आदि अत्यंत आवश्यक है। जिस काम के लिए वेतन मिले, उसे निष्ठापूर्वक करना। श्रम के प्रति सम्मान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
श्रीमद भागवत गीता में-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मो निधनं श्रेय: परधर्मोभयावह:।।
अध्याय तीन, श्लोक 35
यहां पर धर्म शब्द अंग्रेजी भाषा के रिलीजन का पर्याय नहीं है।
4- जाति, धर्म :-
15 अगस्त, सन् 1945 के दिन भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने पर हमारे जननायकों ने भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाया। यदि वे चाहते हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान 14 अगस्त 1947 के दिन भारत से एक दिन पहले स्वतंत्र हुआ था और जिसने इस्लाम को राज्य धर्म बनाया। इसी की भांति भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर सकते थे। भारत में हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन, बौद्ध, पारसी तथा अन्य मतावलम्बी रहते हैं। देश प्रगति करे, अत: सभी नागरिकों का यह कर्तव्य है कि सब मिलजुल कर रहें। शांति बनाये रखें। राष्ट्र कि प्रगति के लिए सामाजिक समरसता अत्यंत है।
5- उद्यमिता विकास :-
इंफोसिस के संस्थापक दुर्भाग्य से हमारे मुल्क में विकास का ऐसा मॉडल अख्तियार कर लिया गया है जिसमें सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह न केवल रोजगार पैदा करे, बल्कि रोजगार बनाये भी रखे। श्री नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक बेटर इंडिया, बेटर वल्र्ड में इस मॉडल की चर्चा करते हुए कहा है कि इसमें दक्षता एवं जिम्मेदारी के लिए कोई स्थान नहीं है। इस मॉडल के कारण
1- कार्य में दक्षता का अभाव
2- कार्य के प्रति अरुचि
3- अनुशासनहीनता
4- योग्य व्यक्तियों का हतोत्साहित होना आदि अनेक दोष हैं।
श्री नारायणमूर्ति का यह स्पष्ट मत है कि भारत को यदि विकसित राष्ट्र बनाना है तो हमें इस मॉडल को धीरे-धीरे छोडऩा होगा। आज ऐसे युवाओं की आवश्यकता है जो स्वरोजगार के लिए उद्यम करें। राज्य से यही अपेक्षा है कि वह उद्योगों को फलने-फूलने के लिए उचित वातावरण एवं मूलभूत सुविधाओं के विकास में सहायक हों।
6- सामाजिक सुरक्षा:-
संयुक्त राज्य अमेरिका में सामाजिक सुरक्षा अच्छी एवं संतोषजनक व्यवस्था है। यद्यपि इस व्यवस्था के भी कई आलोचक हैं। भारत में जहां हमारी संस्कृति मातृ देवोभव, पितृ देवोभव की शिक्षा देती है। परंतु वहीं अब पश्चिम के प्रभाव से जमाने की फिजा बदल रही है। अक्सर ऐसे उदाहरण देखने व सुनने को मिलते हैं, जहां वृद्धावस्था में माँ-बाप को तिरस्कृत किया जा रहा है। परिवार टूट रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा में आर्थिक सुरक्षा एवं आवासीय व्यवस्था, चिकित्सा सुविधाओं आदि की पुख्ता व्यवस्था आदि आते हैं। भारत में वैकल्पिक व्यवस्था की अनुपस्थिति में हमारी परंपरागत पारिवारिक व्यवस्था ही सर्वोत्तम है।
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                                                                         कुमाऊं विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति
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Sunday, November 21, 2010

शुचिता व पवित्रता के लिए अंत:करण में झांकना होगा

...........चिकित्सा जगत का बदलता स्वरूप...............
             चिकित्सक भगवान का दूसरा रूप माना जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं। इस वाक्य को इसलिए भी इसे जोर देते हुए लिख रहा हूँ कि मैं आज डाक्टर की वजह से ही इस लेख को लिखने तक की सफलतम जीवन यात्रा पर हूँ...। व्यक्तिगत मामले पर अधिक चर्चा न करते हुए मैं डाक्टर के पवित्र पेशे की वास्तविकता और वर्तमान में विदू्रप हो चुके चरित्र पर भी चर्चा करना चाहूँगा। 
चिकित्सा जगत में नित नये अनुसंधान हो रहे हैं। नई-नई दवाइयों और उपचार के विधियों से असाध्य रोग भी साध्य हो गये हैं। जिस क्षय रोग के चलते व्यक्ति के लिए अंतिम सांसें गिनना ही शेष रह जाता था। परिवार से ही उपेक्षित हो जाता था। आज वह सामान्य तरीके से उपचार से पूरी तरह स्वस्थ हो जाता है। यहां तक कि हार्ट के गंभीर रोगियों का इलाज भी बेहद आसान हो गया है। पोलियो से लेकर खसरे तक के टीके ने इस रोग को पनपने से पहले ही खत्म कर दिया है। कैंसर जैसी बीमारी का उपचार तक खोज लिया गया है। एड्स/एचआईवी जैसी असाध्य बीमारी का उपचार भी चिकित्सा जगत खोज रहा है। स्टेम सेल नाम से ऐसा उपाय ढूंढ लिया गया है कि शरीर के मृत अंग को भी पुनर्जीवित किया जाने लगा है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा, आपाधपी और तनावभरी जिन्दगी में व्यक्ति की औसत आयु भले ही कम हो गयी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि चिकित्सा की आधुनिक तकनीक से मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुके मरीज का सफल उपचार भी होने लगा है। चिकित्सा का क्षेत्र निरंतर व्यापक होता जा रहा है। जहां पहले एक ही वैद्य शरीर की संपूर्ण व्याधियों का पूरा इलाज करता था, अब तो हर मर्ज का एक अलग स्पेशलिस्ट डाक्टर है। नि:संदेह ही माना जा सकता है कि दुनियां में चिकित्सक भगवान का ही दूसरा रूप है। जिसकी बदौलत यह सब संभव हो गया है।
आर्थिक युग में दूसरा रूप देखें तो पवित्र पेशा बदनाम हो चुका है। धनोपार्जन की हवस ने चिकित्सक की संवेदनशीलता को खत्म कर दिया है।  बड़े शहरों में ही नहीं छोटे शहरों में भी पूरी तरह प्रोफेशनलिज्म हावी हो चुका है। चिकित्सकीय पढ़ाई के समय मरीज व डाक्टर के आत्मीय संबंधों के बारे में भले ही कुछ पन्नों में पढ़ लिया जाता हो लेकिन पूरी तरह पेशे में उतरने के बाद तो कुछ चिकित्सकों को छोड़कर अधिकांश चिकित्सक संवेदनशून्य नजर आने लगे हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तब दिखता है जब गरीबी में गुजर-बसर कर रहे लोग इलाज के चलते अपना सबकुछ बेचकर सड़क पर भीख मांगने की कगार पर पहुंच जाते हैं। कई बार तो अस्पताल का पूरा पैसा जमा न करने पर लाश तक छुपा ली जाती है। अमीर व गरीब में फर्क तक नहीं किया जाता है। महिला की सामान्य डिलीवरी करने के बजाय पैसा कमाने के चलते आपरेशन कर दिया जाता है। कमीशन का रोग नेताओं व नौकरशाहों तक ही सीमित न होकर चिकित्सकीय पेशे में भी पूरी तरह पैठ बना चुका है। यहां तक की कई बार कमीशन के चलते जांच रिपोर्ट में मरीज को भ्रमित कर दिया जाता है। उसी भ्रम का फायदा भी उठा लिया जाता है। कभी-कभी तो सामान्य बीमारी होने पर भी आपरेशन कर दिये जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में तो अधिक मेहनत न करनी पड़े या तो मरीज को रेफर कर दिया जाता है या फिर कमीशन के चलते निजी चिकित्सालय में भेज दिया जाता है। डाक्टर के इस पवित्र पेशे को जिस तरह ठेस पहुंचायी जा रही है यह आने वाले भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। जब तक जिन्दगी और मौत के बीच जुड़े गंभीर पेशे में मानवता व संवेदनशीलता जीवित नहीं रहेगी तब तक चिकित्सकों पर अंगुलियां उठते ही रहेंगी। भगवान के दूसरे रूप की तरह पूज्य माने जाने वाले डाक्टर को अपनी शुचिता व पवित्रता को बरकरार रखने के लिए अंत:करण में झांकना होगा। इसी उम्मीद के साथ...।
        

Monday, November 8, 2010

जरूरत राहत सामग्री की ही नहीं, जागरूकता की भी...

        नैनीताल जनपद के धारी ब्लाक के पहाड़पानी क्षेत्र, जिसके आधा दर्जन से अधिक गांव बारिश में तबाह हो गये थे। यह विभीषिका विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले गांवों में कूपमंडूक की तरह रहने वाले फटेहाल ग्रामीणों का जीवन और बदतर कर गया। इससे तो ग्रामीणों की बची-खुची जिन्दगी की आस भी खत्म हो गयी। इन बिखरे लोगों को राहत सामग्री तो पहुंचायी जा रही है लेकिन इससे ही इन लोगों की भूख कुछ दिनों के लिए तो मिट जाएगी लेकिन इन ग्रामीणों की जिन्दगी में उम्मीद के किरण फिर से दिखायी पड़ेंगे, नेताओं के केवल लोक लुभावन व लच्छेदार भाषणों से और प्रशासन की खानापूर्ति पूर्ण रवैये से तो दूर तक नजर नहीं आ रहा है। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग आपदा से प्रभावित नहीं है वे भी शिक्षा, चिकित्सा और सबसे जरूरी हथियार जागरुकता से वंचित हैं।
शहर के कैमिस्ट एंड ड्रगिस्ट एसोसिएशन द्वारा पहाड़पानी के प्रभावितों को जब राहत सामग्री पहुंचायी जा रही थी, मैं भी वहां था। राहत सामग्री वितरण का कार्यक्रम राजकीय इंटर कालेज पहाड़पानी के प्रांगण में रखा गया था। यहां पर ग्रामीण पहले से ही टकटकी लगाये बैठे थे। हालांकि व्यवस्था बनाने के लिए क्षेत्र के कुछ जागरूक लोगों को पहले से ही वास्तव में बाढ़ से प्रभावित लोगों की सूची बनाने का कार्य सौंपा था। उन्होंने प्रधानपति से पूछकर सूची भी तैयार कर ली थी। सूची में 32 लोगों के नाम थे लेकिन जब सामग्री वितरित की गयी तो 45 से अधिक लोग हो गये। वहां पर देखते ही देखते सैकड़ों ग्रामीण एकत्रित हो गये। राहत सामग्री लेने के लिए मारामारी मच गयी। इसमें आश्चर्य की बात यह थी, जो लोग बाढ़ से प्रभावित थे, उन्हें तो सामग्री दी जा रही थी लेकिन जो प्रभावित नहीं थे, वे भी आपदा के नाम से वितरित की जा रही खाद्य सामग्री लेने को कतार में खड़े हो गये। पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीणों की यह स्थिति सोचने को मजबूर कर रही थी। इस दौरान मैंने वहां के कुछ लोगों से बात कर ग्राम प्रधान को बुलाने का आग्रह किया तो वे प्रधानपति को बुलाकर ले आये। प्रधानपति ने सिर झुकाकर कहा- 'मैंने जो लिस्ट देनी थी, पहले ही दे दी हैÓ इससे ज्यादा कुछ कहे बिना वह चल दिया। मैंने उसकी पीड़ा समझ ली, अगर वह वहां भीड़ में जरूरतमंद लोगों के ही नाम लेता तो उसका गांव में रहना मुश्किल हो जाता। इस बीच ही एक ग्रामीण जेब में देशी दारू की बोतल लिए राहत सामग्री लेने पहुंच गया। जब मेरी नजर उसके जेब में पड़ी तो, मैंने उससे पूछा यह क्या है? वह कुछ बोले बिना ही वहां से खिसक गया। इस दृश्य ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। उसके पास शराब के लिए रुपये हैं लेकिन शाम के समय खाने के लिए आटा, चावल व दाल का इंतजाम नहीं है। मुफ्त में मिल रही खाद्य सामग्री पर हाथ साफ करने पहुंच गया। जबकि हष्ट-पुष्ट दिखने वाला वह व्यक्ति अच्छा-खासा मेहनत कर रुपये कमा सकता है।
भारत के स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों के गांव आज भी भोगी व अवसरवादी नेताओं की अदूरदर्शिता से पिछड़ेपन का शिकार हैं। यहां निरक्षरता व अज्ञानता के चलते ग्रामीण भीख मांगने जैसी स्थिति में पहुंच चुके हैं। जबकि इन ग्रामीणों की उत्थान व इनके जीवन को सुधारने के लिए तमाम योजनाओं में करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं। इसके बावजूद परिणाम सिफर है। हर पांच साल बाद चुनावों में घोषणा पत्र तैयार होता है और विकास के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं।
लेकिन सबसे बड़ा चौंकाने वाली बात यह है कि जब कफन के पैसे पचा लिये जाते हैं, शहीदों की विधवाओं के फ्लैट हथिया लिये जाते तब ऊपर से नीचे बह रहे भ्रष्टाचार से आपदा का धन गिद्ध दृष्टि लगाये दलालों से कैसे बच जाएगा? यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

Thursday, October 28, 2010

दो साल बाद खोलूंगा राजनीति के पत्ते: रामदेव

मुझे सत्ता व सिंहासन नहीं दे सकता है यह मुकाम



योग का राष्ट्रधर्म के साथ तालमेल बनाते हुए देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए राजनीति का सहारा लेना होगा। वर्तमान सरकारें भ्रष्टाचार रोकने में असमर्थ हो रही हैं, अगर यही हाल रहा तो दो साल बाद राजनीति में आने के लिए पत्ते खोल दूंगा।
गुरुवार को योगर्षि स्वामी रामदेव  वानिकी प्रशिक्षण संस्थान में पत्रकारों से वार्ता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि सत्ता और सिंहासन उन्हें वो कुछ भी नहीं दे सकता है, जो उन्हें अभी  हासिल है। उनका उद्देश्य देश को भ्रष्ट, बेईमान, कायर, कमजोर, शक्तिहीन एवं मूर्ख लोगों से बचाना है। ऐसे लोगों केहाथों देश की सत्ता को जाने से रोकना है। पानी की तरह ऊपर से नीचे बह रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए राजनीति दलों से बातचीत हुई। इसमें एक दल ने तो इस मुहिम में शामिल होने से मना कर दिया। दूसरे दल ने 60 से 70 प्रतिशत तक शुद्धि किये जाने पर सहमति जतायी। तीसरे दल ने पूरी तरह साथ चलने की बात कही है। अगर यह दल चारत्रिक, आपराधिक छवि वाले नेताओं को उम्मीदवार नही बनायेंगे तो आगे देखा जा सकता है। इसमें उनकी भूमिका केवल गुरु की तरह होगी। उन्होंने कहा कि बड़ी करेंसी बंद होनी चाहिये। अगर विकसित देश बड़ी करेंसी नहीं छापते हैं तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इस बात को स्वीकार किया है। केन्द्र सरकार बेईमान है, इसलिए वह कानून नहीं बना रही है। एक सवाल के जवाब में स्वामी रामदेव ने कहा कि महर्षि महेश योगी के नाम से लोग परिचित नहीं थे लेकिन देश में अंतिम व्यक्ति से खास व्यक्ति भले ही उनका नाम नहीं जानता हो लेकिन उनके ध्येय से परिचित है। देश के 624 जिलों में 15 संगठन क्रियाशील हैं। उन्होंने कहा कि जो भी देश में रहकर देशद्रोह की बात करता है तो उसमें समझौता नहीं करना चाहिये। उन्होंने कहा कि गंगा की धारा अविरल बहनी चाहिये लेकिन विकास भी होना चाहिये। वे छोटे बांध बनाने के पक्षधर हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि राज्य सरकार विकास के कार्य कर रही है, इसकी गति और तेज होनी चाहिये। स्वामी रामदेव ने पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने विकास के द्वार खोले थे, उन्होंने उनके मिशन में किसी तरह का अवरोध डालने का प्रयास नहीं किया।

Thursday, October 21, 2010

नेपोलियन बोनापार्ट का प्रेम पत्र...

नेपोलियन बोनापार्ट का पत्र जोसेफिन के नाम
1796

  डियर डार्लिंग,
      मैंने एक भी दिन तुम्हें प्यार किए बगैर नहीं गुजारा है। मैंने एक भी रात तुम्हें आलिंगन में लिए बगैर नहीं बिताई है। मैंने एक कप चाय तक उस गर्व और महत्वाकांक्षा को कोसे बगैर नहीं पी है, जिसने मुझे मेरी जिन्दगी की रूह से दूर रखा है। अपने कर्तव्य के निर्वाह के दौरान भी, चाहे मैं सेना का नेतृत्व कर रहा होऊं या शिविरों का मुआयना कर रहा होऊं, मैं अपनी प्यारी जोसेफिन को अपने दिल में अकेली खड़ा पाता हूं। मेरे मस्तिष्क और विचारों में उसी का प्रतिबिम्ब रहता है।
 अगर मैं तूफानी गति से तुमसे दूर जा रहा हूं, तो इसका लक्ष्य यही है कि मैं जल्दी से जल्दी तुम्हारे करीब आ सकूं। अगर मैं आधी रात को भी उठकर काम में जुट जाता हूं तो सिर्फ इसलिए कि मेरा प्रेम और जल्दी मेरे पास लौट सके और फिर भी तेईस और छब्बीस तारीख के अपने पत्रों में तुमने मुझे निष्ठुर कहा है। निष्ठुर तो तुम खुद हो। आह! इतना ठंडा खत तुमने क्यों लिखा? और फिर तेईस और छब्बीस के बीच में चार दिन और भी तो थे, तुम ऐसा क्या कर रही थीं कि अपने पति को पत्र लिखना ही भूल गईं!...आह! मेरे प्रेम, निष्ठुर प्रेम, ये चार दिन मुझे पहले-सा बेफिक्र बन जाने के लिए उकसा रहे हैं, तब जब मैं अपने आप में मस्त रहता था। मेरा कौन सा दुश्मन जिम्मेदार है इसके लिए? सजा और हर्जाने के तौर पर तुम्हें भी इन्हीं भावनाओं में से गुजरना होगा जिनमें से मैं गुजरा हूं। इससे ज्यादा तीखी यातना और क्या होगी? हमसे ज्यादा भयानक स्वप्न और क्या होगा?
  निष्ठुर! निष्ठुर! और दो हफ्ते बाद हालात कैसे होंगे?...मेरी आत्मा बोझिल है, मेरा दिल कसमसा रहा है, और मैं अपनी कल्पनाओं से डरा हुआ हूं। तुम मुझे उतना प्रेम नहीं करती, तुम मेरी कमी के एहसास को बर्दाश्त कर जाओगी। फिर एक दिन तुम्हारे मन में मेरे लिए जरा भी प्यार नहीं रह जाएगा। कम से कम मुझे बता तो दो, मैं ऐसे दुर्भाग्य के क्यों कर योग्य हूं?...विदा, मेरी जीवन संगिनी, मेरी यातना, मेरा आनंद, मेरी उम्मीद, मेरी जिन्दगी की आत्मा- जिसे मैं प्यार करता हूं, और जिससे मैं डरता हूं- जो मेरे मन में इतनी कोमल भावनाएं भर देती हैं कि मैं शांत प्रकृति के एक हिस्से को किस तरह महसूस करता हूं- और इतना हिंसक आवेग भी कि मैं किसी तूफान की तरह महसूस करता हूं।
  मैं तुमसे न तो चिरंतन प्रेम की चाह रखता हूं, न वफादारी की, सिर्फ सत्य की, ईमानदारी की चाह रखता हूं। जिस दिन तुम कहोगी, 'मैं तुमसे कम प्रेम करती हूं, वह मेरे प्रेम का और जीवन का आखिरी दिन होगा। अगर मेरा दिल ऐसा दिल हुआ कि बिना तुम्हारा प्रेम पाए भी तुमसे प्रेम करता रहे, तो मैं इसे चीरकर रख दूंगा। जोसेफिन! जोसेफिन! याद रखो मैंने कई बार तुमसे क्या कहा है- प्रकृति ने मुझे एक पुंसत्वपूर्ण और निर्णायक चरित्र दिया है जबकि तुम्हारा चरित्र उसने रेशम और मखमल से बुना है। क्या तुमने मुझसे प्रेम करना छोड़ दिया है? मुझे क्षमा करना, मेरे प्यार, मेरी जिन्दगी के प्यार, मेरी आत्मा कई द्वंद्वों से संघर्ष कर रही है।
 मेरा दिल, जो तुम्हारे प्रति मेरे ईष्र्यालु प्रेम से सराबोर है, कई बार मुझे विचित्र भयों से भर देता है, और मैं बहुत दुखी हो जाता हूं। मैं इतना हताश हूं कि मैं तुम्हारा नाम भी पुकारना नहीं चाहूंगा, मैं तुम्हारे हाथ से लिखा पत्र देखने की प्रतीक्षा करूंगा।
  विदा! आह! अगर तुम मुझसे कम प्रेम करती हो तो इसका मतलब है कि तुमने मुझसे कभी प्रेम किया ही नहीं था। फिर तो मेरी हालत सचमुच बहुत दयनीय हो जाएगी।
                                                                                                                                        बोनापार्ट

Monday, October 18, 2010

पुतला तो जल गया मगर कलयुगी रावण...

कागज के पुतले को जला देने से भर से कलयुग का रावण नहीं जल सकता है। केवल रस्म अदायगी ही हो सकती है। इतने से ही कैसे काम चलेगा? कुछ समझ में नहीं आता है। घोर कलयुग में जहां पर नजर दौड़ायें दशानन ही नहीं बल्कि हजारों सिर लिए हुए रावण ही रावण नजर आते हैं। जहां हाहाकार मचा हुआ है। घोर मानसिक कष्ट है। अवसाद है। भुखमरी है। गरीबी है। उत्पीडऩ है। छटपटाहट है। द्वेष है। चीख-पुकार मची है, कहीं बलात्कार, कहीं चोरी, कहीं हत्या, कहीं गंदगी, कहीं निरक्षरता, कहीं बेरोजगारी, कहीं भ्रष्टाचार और कहीं बीमारी की। इसके लिए दोषी कौन है, जो सिंहासन पर बैठा है। अगर वहीं रावण है तो निश्चित ही चारों ओर राक्षस ही राक्षस होंगे। इस स्थिति में जनता निर्भय होकर कैसे रह सकेगी? हम आप सब समझ रहे होंगे। हम तो एक दिन विजयदशमी पर्व पर रावण का पुतला बना देते हैं, और जला देते हैं। असत्य पर सत्य की जीत का जश्न मना लेते हैं। भाषण भी होते हैं, कहा जाता है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्शों पर हम सभी को चलना होगा। उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेनी होगी। लेकिन वास्तविकता कुछ और होती है, जो उपदेश दे रहे होते हैं, समाज के सबसे अधिक पतित वहीं नजर आते हैं जो केवल भ्रम पैदा कर अपना मतलब निकालकर आगे निकल जाते हैं। भले ही पीछे जनता जी रही हो या मर रही हो। इसकी कोई परवाह नहीं। असली मुद्दा तो यह है कि हमारे भीतर रावण के पुतले को जलाने की समझ कब विकसित होगी? समाज में शौर्य प्रकट करता रावण पर श्रीराम की जीत के जश्न का आधार कैसे तय होगा? प्रकांड विद्वान रावण के अहंकार के आगे कलयुग के राक्षसों (माफियाओं) द्वारा गरीब के धन से बनाये गये ऊंचे व चौड़े पुतले के जलने की औपचारिकता कब तक निभायी जाती रहेगी? भारतीय संस्कृति व लोकतंत्र के ध्वजवाहकों के साथ हो रहे अमानवीय अत्याचार के खिलाफ लडऩे के लिए भगवान श्रीराम कब अवतार लेंगे? त्रेता युग के राम ने जिस तरह रावण पर विजय प्राप्त कर आज तक प्रेरणा का स्रोत बने रहे, लेकिन इस कलयुग में कौन होगा प्रेरणास्रोत जो घर-घर में सिर उठा रहे रावण नहीं रावणों का अंत करेगा। ताकि फिर त्रेता युग की तरह कलयुग में भी विजयोल्लास मनाया जा सकेगा।

Friday, September 24, 2010

प्रकृति की विनाशलीला में जिन्दगी की आस...

बारिश....बारिश....और बारिश। लगातार घनघोर बारिश ने उत्तराखंड का छह जनपदों के मंडल कुमाऊं को तबाह कर दिया है। हजारों लोगों के सपनों के घर मिट्टी में मिल गये हैं। खेत उजड़ गये हैं। बच्चों के सैकड़ों स्कूल ढह गये हैं। नदी, नाले व गधेरों में पानी उफान पर है। गांवों में सिलेंडर, केरोसिन ऑयल, पेट्रोल कुछ भी नहीं पहुंच पा रहा है। इन पदार्थों को हवाई सेवा के माध्यम से भी पहुंचाना मुश्किल हो गया है। आसपास के स्कूल, पंचायत घर व किसी परिजन व रिश्तेदार की शरण में आसमान को ताकते-ताकते एक-एक दिन व्यतीत करना मुश्किल हो गया है। १३५ से अधिक व्यक्ति अकाल ही काल कवलित हो गये हैं। जिन्दगी अभिशाप बन गयी है। खूबसूरत ऊंची-नीची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत के निवासियों की जिन्दगी अब त्राहि-त्राहि कर रही है। पहले से ही विषम भौगोलिक परिस्थिति में जैसे-तैसे गुजर बसर कर रहे क्षेत्रीय लोगों का एक-एक पल कचोट रहा है। कई घरों के चिराग बुझ गये हैं, किसी के पति को किसी की पत्नी, किसी के माता-पिता प्रकृति की इस भीषण विभीषिका का शिकार हो चुके हैं। उनके सपनों का घर मिट्टी में मिल चुका है। उनके जानवर बह गये हैं। इन सुरम्य वादियों के बीच असंख्य देवी देवताओं के आस्था व श्रद्धा के प्रतीक मंदिरों में जिन्दगी की भीख मांगते हुए लोगों का करुण क्रंदन आहत करने वाला है। दूसरे राज्यों में नौकरी करने वाले यहां के बाशिंदे असहाय हैं, जो घर आये थे, उनका बाहर निकलना दूभर हो गया है। तिल-तिल कर तड़पाने वाला प्रकृति का कोप किसी के समझ से परे हैं। मैदानी क्षेत्र ऊधम सिंह नगर का आधा से अधिक हिस्सा पूरी तरह पानी में डूबा हुआ है। अविराम वृष्टि से दो दर्जन से अधिक गांव पूरी तरह नष्ट हो गये हैं। इस तरह की भयंकर आपदा पहले कब आयी थी, बुजुर्गों को भी पता नहीं। आपदा प्रबंधन के नाम पर स्वयं की पीठ थपथपा रहे राजनेताओं को जमीनी हकीकत से तो कोई सरोकार नजर नहीं आता है लेकिन आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए, उसी आधार पर मीडिया में बयानबाजी की जा रही है। राज्य की इस भयंकर विनाशलीला का आकलन करने में असमर्थ राज्य सरकार को केन्द्र सरकार द्वारा ५०० करोड़ रुपये की आर्थिक पैकेज तो दे दिया, लेकिन अब इस धन का बेघर लोगों के लिए घर बसाने, सड़कें बनाने, स्कूल भवन बनाने, चिकित्सा सुविधा मुहैय्या कराने, महामारी से बचाने और रोजी-रोटी उपलब्ध कराने के लिए कितना सदुपयोग होता है। यह तो धीरे-धीरे पता चलेगा। लेकिन, घोटालों के इस प्रदेश में राजनेताओं व नौकरशाहों की गिद्द दृष्टि से बचते हुए पीडि़तों पर कितना मरहम लग पायेगा। इसे देखना होगा...।