Wednesday, October 16, 2013

रावण का पुतला जला पर बुराईयां नहीं


 असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं।


आज समाज में जिधर भी नजर दौड़ाएं, बुराईयां ही बुराईयां दिख रही हैं। आम से खास हर कोई किसी न किसी 'रावणÓ से परेशान है। कलयुग का यह रावण सबसे अधिक मानवता के नैतिक पतन के रूप में उभरा है, जिसके चलते भ्रष्टाचार, नशाखोरी, मिलावटखोरी, गैर बराबरी, अशिक्षा, अज्ञानता जैसी तमाम समस्याएं मुंह बाएं सुरसा की तरह खड़ी हो गई हैं। समाज में तेजी से पनपते रावण और इसके लिए समाधान को लेकर चर्चाएं भी हो रही हैं। गोष्ठियां हो रही हैं। संत-महात्मा से लेकर नेता तक बड़े-बड़े मंचों से उपदेश दिए जा रहे हैं। बाकायदा सेमिनारों का आयोजन हो रहा है। इसके लिए विजयदशमी का सबसे बड़ा उत्सव मनाया जाता है। इस दिन बड़े से बड़े रावण के पुतले जलाने की होड़ सी मच जाती है। जमकर आतिशबाजी होती है। इस पुतले जलने से ही बुराईयों का अंत मान लिया जाता है। असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं। ऐसा आखिर क्यों हो रहा है? हर साल रावण के रूप में हम बुराई के अंत का ढींढोरा पीटते हैं लेकिन अपने भीतर की गंदगी को झांकते तक नहीं हैं। राग, द्वेष, छल, कपट, दुष्कर्म, फरेब, ठगी, लालच जैसे कुकर्म व्यक्ति को छोड़ ही नहीं पाते हैं। शायद व्यक्ति ही इनसे निवृत ही नहीं होना चाहता है। शायद हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं।

Wednesday, October 2, 2013

मैं बूढ़ा हूं पर यह मेरी मजबूरी है

चेहरे पर झुर्रिया पड़ गई हैं। पांव कंपकंपाते हैं। याद कुछ नहीं रहता है। अब पैसा भी नहीं बचा। नौकरी करने की अब सामथ्र्य नहीं रही। ऐसी स्थिति के लिए मेरी कोई गलती नहीं है। यह तो प्रकृति का नियम है। उम्र के आखिरी पड़ाव तक जीवित रहने वाले हर शख्स का यही हश्र होना है लेकिन इसके बाद भी उपेक्षा। यह समझ से परे है। अब न तो अपनी ही औलाद मुंह लगाती है और न ही सरकार की कोई योजना का लाभ मिलता। गैर सरकारी संगठन भी मेरे नाम से लाखों रुपये हड़प लेते हैं, लेकिन मेरी इस दयनीय दशा को देखकर किसी को तरस नहीं आता है। मैं अब बूढ़ा हो गया हूं लेकिन यह मेरी मजबूरी है, लेकिन जिंदगी का सच भी यही है।
इस सच से मुंह मोडऩे वाले मेरे बच्चों को अब कुछ याद नहीं रहा। जब मैंने उनको अंगुली पकड़कर चलना सिखाया। उसके हर सवाल का जवाब दिया। उसके लिए न दिन देखा और न रात। जिंदगी के आखिरी पड़ाव में पहुंचते ही अपने व्यवसायिक उत्तराधिकार भी उसे सौंप दिया। जब मेरा पास कुछ बचा तो मैं उनके लिए ही अनुपयोगी हो गया। अपेक्षा, तिरस्कार और व्यंगवाणों से मानसिक, भावनात्मक व शारीरिक रूप से उपेक्षित होने लगा हूं। परिजन, मित्रजन सभी को अपना समझता था। उनके साथ समय व्यतीत करता था लेकिन अब मेरी शाख नहीं रही। एकाकीपन कचोटता है। अनेक प्रकार की आशंकाएं ने जीवन को असुरक्षित व भयावह स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। कभी-कभी सोचता हूं कि भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों का सम्मान करने की प्रवृति थी। यह सीख हम सभी को दिया करते थे। पर, पाश्चात्यीकरण का प्रभाव हो या शहरीकरण की चाह, बूढ़े मां-बाप की सेवा तो दूर देखना भी नई पीढ़ी को गंवारा तक नहीं। जिंदगी के आखिरी पड़ाव में इतनी अशांति पता नहीं कहां ले जाएगी। जबकि सरकार ने मेरे लिए माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम 2007 लागू किया है। उत्तराखंड सरकार ने भी 2011 में इसे लागू कर दिया था। यह कानून भी महज औपचारिक भर रह गया। एक अनुमान के मुताबिक देश में ही इस समय 7.50 करोड़ वरिष्ठ नागरिक हैं। इनकी संख्या वर्ष 2025 तक 11.07 करोड़ होने की संभावना है। इतनी बड़ी तादाद में आज भी मेरी बिरादरी के हजारों लोग निराशा, हताशा, अशांत, तनावग्रस्त, बीमार जीवन जीते हुए अंतिम सांस गिनने को मजबूर हैं। हर शहर, गली, मोहल्ले व गांव तक मैं मुझ जैसे वृद्ध भटकते दिख जाएंगे।
दीवार क्या गिरी मेरे खस्ता मकान की।
लोगों ने मेरे सहन में रस्ते बना लिए।।