Monday, February 28, 2011

बेमेल राजनीतिक गठबंधन के विरोधी थे विपिन दा


गणेश जोशी
पहाड़ के जल, जंगल व जमीन को किया संघर्ष
  
         वन बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, चांचरीधार आंदोलन हो या महंगाई के खिलाफ आवाज बुलंद करना हो, सभी में हमेशा आगे रहे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी विपिन चन्द्र त्रिपाठी यानि विपिन दा। जल, जंगल, जमीन के इस संघर्ष में उन्होंने भूख हड़ताल से लेकर आमरण अनशन किया और जेल में रहे। इस सब की परवाह किये बिना निरंतर संघर्षरत रहे। अब उनकी यादें और संघर्ष ही शेष रह गया है।
श्री त्रिपाठी का जन्म 23 फरवरी 1945 में द्वाराहाट के ग्राम दैरी में हुआ था। उनके पिता मथुरादत्त त्रिपाठी डाक विभाग में कार्य करते थे। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही ग्रहण की और माध्यमिक शिक्षा मुक्तेश्वर से पूरी हुई। इसके बाद आईटीआई व स्नातक परीक्षा के दौरान ही उनके ऊपर डा. राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव के विचारों का प्रभाव पड़ा। सादा जीवन उच्च विचारों के साथ ही समाज की सेवा में जुट गये। वर्ष 1967 से आंदोलन में कूद गये। वर्ष 1972 में प्रजा सोसलिस्ट द्वारा चलाये गये भूमि आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय महंगाई के विरोध में आवाज बुलंद की। विपिन दा 1982 में ब्रांच फैक्ट्री के खिलाफ, 1988 में वन अधिनियम, 1989 में भूमि संरक्षण आंदोलन में सक्रिय रहे। आपातकाल के समय छह जुलाई 1975 को जेल गये। 22 महीने जेल में सजा काटने के बाद बाहर निकले तो जनता पार्टी की सरकार सत्ता हासिल करने जा रही थी। उन्होंने युवजन सभा से इस्तीफा मोरारजी देसाई को भेज दिया। चिपको आंदोलन, चांचरीधार आंदोलन में भी हमेशा आगे रहे। इतना नहीं विपिन दा सत्ता सुख से दूर रहे। बेमेल राजनीतिक गठबंधन के पक्षधर नहीं थे। इस तरह के गठबंधन को देश के लिए घातक बताते थे। वर्ष 1989 में द्वाराहाट के ब्लाक प्रमुख बने। इस दौरान उन्होंने द्वाराहाट इंजीनियरिंग कालेज, पॉलिटेक्नीक, राजकीय महाविद्यालय खोलने के अलावा अन्य विकास कार्य किये। इसके लिए भूख हड़ताल व आमरण अनशन तक किया। वर्ष 1984 में नशा नहीं रोजगार दो अंादोलन में 40 दिन तक जेल रहे। वर्ष 1980 से उत्तराखंड क्रांति दल से जुडऩे के बाद महासचिव से अध्यक्ष पद तक रहे। वर्ष 1992 में बागेश्वर में उन्होंने उत्तराखंड का ब्लू प्रिंट तैयार किया। इसे ही पार्टी ने घोषणा पत्र तैयार किया। श्री त्रिपाठी ने वर्ष 1974 में बारामंडल सीट से पहला चुनाव लड़ा इसमें 19 हजार वोट हासिल किये। पांच बार चुनाव लडऩे के बाद उत्तराखंड के प्रथम चुनाव में द्वाराहाट के विधायक बने। 30 अगस्त 2004 को उनका निधन हो गया। युवजन मशाल पाक्षिक मैगजीन निकालकर उन्होंने आंदोलनों की धार को तेज किया। उनके सपनों को पूरा करना आज भी राज्य के राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए चुनौती बना हुआ है।

Wednesday, February 23, 2011

खो गया इंसान

मंजिल का नहीं ज्ञान,
सस्कारो से अंजान,
चकाचौध में जीने को,
भटक रहा इन्सान.
परपीड़ा से विमुख,
संवेदना हुई क्षीण,
अनन्त की चाहत में,
छटपटा रहा इन्सान.
स्वयं को गया भूल,
चिंता नहीं चिता की,
आपाधापी की जिंदगी में,
खो गया इंसान.




Sunday, February 20, 2011

अस्तित्व को छटपटाती उत्तराखंड की बोलियां


    जिस तरह से राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बढ़ रहा है और बाजार पर वैश्वीकरण व पाश्चात्यीकरण का प्रभुत्व हो गया है, उससे उत्तराखंड की बोलियां भी अपने अस्तित्व को छटपटाने लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कहा है कि कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें लिपिबद्ध करने के लिए राज्य गठन के 10 वर्षों में भी सरकार ने ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी।
अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस को लेकर उत्तराखंड से जुड़े चंद लोग अपनी मातृ भाषा कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी को बचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स में माहौल बनाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में अभी तक इन बोलियों की कोई लिपि तक नहीं बन सकी है। स्थिति यह है कि यह बोलियां अपने अस्तित्व के लिए ही कसमसा रही हैं। चंद कवियों, लेखकों व ब्लागरों के जरिये इन बोलियों को सहेजने के साथ ही युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इसमें राज्य सरकार कोई विशेष पहल करती हुई नजर नहीं आ रही है। हालांकि उत्तराखंड में दर्जनों बोलियां हैं, जिनमें कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी प्रमुख हैं। इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया जा रहा है। इनमें से किसी भी बोली को लिपिबद्ध नहीं किया गया है। धाद संस्था इन बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। 25 वर्ष पूर्व स्थापित संस्था ने पत्रिका निकालकर कार्य शुरू किया था। दूर-दराज क्षेत्रों में गढ़वाली व कुमाऊंनी कवि सम्मेलनों का आयोजन किया, जो अब भी जारी है। धाद के समन्वयक तन्मय ममगईं बताते हैं कि इसके लिए समय-समय पर कवि सम्मेलन व भाषा पर विमर्श किया जा रहा है।
वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही कहते हैं कि क्षेत्रीयता को ध्यान में रखते हुए सरकार का दायित्व बन जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं को संरक्षित करने में योगदान दे। उत्तराखंड में थारुों, वनरावतों व भोटिया जनजातियों की बोलियां अस्तित्व में नहीं हैं तो इसके लिए भी दोषी राज्य सरकार है। संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के बजाय कुमाऊंनी व गढ़वाली को द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिये।  अनुवादक व कवि अशोक पाण्डे कहते हैं कि सबसे पहले कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के अलावा लोग भी उदासीन हैं। यही नहंी अपनी बोली को सार्वजनिक रूप में बोलने में लोग  शर्म महसूस करते हैं।
साहित्यकार दिनेश कर्नाटक कहते हैं कि मातृभाषा को शिक्षा के साथ जोड़ा जाना चाहिये। अगर बच्चों को स्कूल में इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा तो इनका भविष्य भी उज्ज्वल होगा।
कुमाऊंनी कवि जगदीश जोशी कहते हैं कि कुमाऊंनी ही नहीं हिन्दी पर ही संकट दिख रहा है। इसे संरक्षित करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
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वर्ष 2000 से मनाया जाता है यह दिवस
  भाषाई स्वीकृति के लिए पहला आंदोलन ढाका में बंगला भाषा के लिए हुआ था। लोग सड़कों पर उतर आये थे। इसमें कई प्रदर्शनकारी शहीद हो गये थे। इसको ध्यान में रखते हुए यूनेस्को महासभा ने नवंबर 1999 में विश्व की उन भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए वर्ष 2000 से प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाने का निश्चय किया गया।

Friday, February 18, 2011

सिनेमा की यर्थाथता के पक्षधर थे निर्मल


बैडिंट क्वीन के विक्रम मल्लाह से मिली प्रसिद्धि

         पर्वतीय संस्कृति के लिए चिंतित रहने वाले और हिन्दी सिनेमा में वास्तविकता के पक्षधर निर्मल पाण्डे उत्तराखंड के लिए गौरव थे। बॉलीवुड की रपटीली दुनिया में अपना मुकाम हासिल कर चुके थे। अपने अभिनय कला से दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने की कला में निपुण हो गये थे। लेकिन प्रतिभावान अभिनेता की दिलकश आवाज केवल 46 वर्ष में ही खामोश हो गयी। उनका अकस्मात् जाना हर किसी को स्तब्ध कर गया था। 18 फरवरी को उनकी पहली पुण्यतिथि होगी।
मध्यवर्गीय परिवार में मूल रूप से द्वाराहाट के पान गाँव के निर्मल पाण्डे का जन्म 11 अगस्त 1962 में बड़ा बाजार नैनीताल में हुआ था। बचपन से ही मेधावी और रंगमंच के शौकीन थे। प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय गौशाला और सीआरएसटी इंटर कालेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। डीएसबी से स्नातक व परास्नातक के साथ ही रंगमंच में अपनी प्रतिभा का हुनर दिखाने लगे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक करने के दौरान उन्होंने नाटकों व फिल्मों में भाग्य आजमाना शुरू कर दिया। फिल्मी दुनिया में बिना गॉडफादर के सफलता की सीढिय़ां चढ़ते हुए निर्मल पाण्डे की पहली फिल्म इडियट थी, लेकिन यह परदे पर असफल रही। निर्देशक शेखर कपूर की फिल्म बैडिंट क्वीन में विक्रम मल्लाह की भूमिका ने शानदार अभिनय के लिए वे सुर्खियों में आ गये। इसके बाद उन्होंने दो दर्जन से अधिक फिल्मों में नायक व खलनायक की दमदार भूमिका के जरिये फिल्मी जगत में हलचल मचा दी। निर्देशक अमोल पालेकर की फिल्म दायरा में अभिनेत्री की भूमिका में निर्मल पाण्डे को फ्रांस का प्रतिष्ठित एक्ट्रेस अवार्ड भी मिला था। इस फिल्म को टाइम मैगजीन ने भी 1997 में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया था। पिता हरीश चन्द्र पाण्डे और माता रेवा पाण्डे के छह बच्चों में वे तीसरे नंबर के थे। उन्हें प्यार से नानू भी कहा जाता था। भीमताल में 1984 में सरकारी नौकरी भी लगी लेकिन उनके अभिनय के जुनून ने उन्हें मुंबई पहुंचा दिया। उनकी व्यक्तिगत जिन्दगी में भी कई उतार-चढ़ाव आये। उनका पहला विवाह प्रसिद्ध अभिनेता आमिर खान की चचेरी बहन अग्$जी कौशल से हुआ था लेकिन यह बहुत दिन तक स्थिर नहीं रहा। इसके बाद 2005 में उन्होंने लखनऊ निवासी टीवी कलाकार अर्चना से शादी की, जिससे जुड़वा बच्चे हैं। उनके नाटक भी देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध हुये। इसमें जिन लाहौर नहीं देख्या व अंधायुग शामिल है। टीवी धारावाहिक हातिम में भी उनकी सशक्त भूमिका रही। उन्हें जज्बा एलबम के जरिए भी अच्छी प्रसिद्धि मिली।
निर्मल की कुछ प्रसिद्ध फिल्में
इस रात की सुबह नहीं
औजार
प्यार किया तो डरना क्या
 जहां तुम ले चलो
ट्रेन टू पाकिस्तान
शिकारी
गॉडमदर
वन टू का फोर
हम तुम पे मरते हैं
जीतेंगे हम
पगला
खफा
हद कर दी आपने