Thursday, January 22, 2015

मां तेरी 'कशिश' अब नहीं रही...

दिल से...


                 मां तेरे नयनों की ज्योति थी। पलकों में पली थी। सांसों में बसी थी। घर के आंगन की चहकती चिडिय़ा थी। खूब इठलाती थी। मचलती थी। दुलारी थी। सबको खुशियां देती थी। मां तूने खूब सारा प्यार मुझ पर उड़ेला था। नौ माह गर्भ में पाला-पोषा और अब मेरे हर कदम को आगे बढ़ाने के लिए सहारा दे रही थी। मेरी छोटी सी तकलीफ पर तू सहम सी जाती थी। और पापा...। भैया...।
खूबसूरत संसार में मैं भी जी रही थी। मेरे भी सपने थे। कुछ ख्वाहिशें थी। कुछ पाने की हसरतें थी। मां-बाप के प्यार को परवान चढ़ाने की इच्छा थी। मैं भी तो 'अपनों' के बीच खिलखिला रही थी। मस्त थी। उल्लास के इस माहौल में सभी मदमस्त थे। हो भी क्यूं न, आखिर मामा जी की शादी जो थी। समारोह में मैं भी उछल-कूद मचा रही थी। गीत-संगीत में झूम रही थी। इधर-उधर भाग रही थी। पापा-मम्मी, बुआ-फूफा, ताऊ-ताई, चचेरे, फुफेरे, ममेरे भाई-बहन सभी जो एक साथ थे। खुशी के उत्सव का ऐसा सुनहरा मौका बार-बार कहां मिलता था। शादी के बाद प्रीतिभोज पर मामा-मामी को बधाई देने का सिलसिला चल रहा था। शायद बालमन से ही मैं भी अपने विवाह के बारे सोच रही होंगी। मेरे मां-बाप अपने हाथों से मेरा भी कन्यादान करते। मैं भी कितना खुशनसीब होती। मेरे चाहने वाले भी मेरे समारोह में होते। मेरा भी घर बसता। अपना संसार होता...। पता नहीं..., मेरी मासूमियत पर किस दरिंदे की नजर लग गई थी। उसके बाद...? सब खामोश। मां तेरे हाथों से मेरी नन्हीं अंगुली हमेशा के लिए छूट चुकी थी। तेरी ममता का, तेरी लाडली कशिश का बेरहमी से कत्ल हो चुका था। पुलिस अंकल बहुत देर हो चुकी थी... अब चाहें तो आप...? मेरी मौत से सवाल तो बहुत उठेंगे, पर... जवाब...?

रोशनी की चकाचौंध में गम नहीं छुपा करते



हमारी आधी जिंदगी कट चुकी है। आगे भी ऐसे ही अंधकार में बीत जाएगी। हम बच्चों के भविष्य को लेकर दुविधा में हैं।

      
       अमावस्या की काली रात को जहां चारों ओर जगमग रोशनी की चकाचौंध होगी। उल्लास व उमंग का वातावरण होगा। एक दूसरे को उपहार देते हुए बधाई का सिलसिला चलता रहेगा। ऐसे समय में हल्द्वानी के राजपुरा में परिवार व समाज से उपेक्षित जीवन व्यतीत करने वाले कुष्ठ रोगियों के बच्चे पिता की भीख से मिले पैसे का इंतजार कर रहे होंगे। अंधकार को दूर कर प्रकाश फैलाने का संदेश देते पर्व पर ऐसे बच्चे स्वयं के भविष्य में उजास की उम्मीद में टकटकी लगाए रहेंगे। इस रोशनी में ऐसे बच्चों का गम नहीं छुप सकता है।
दीपावली के पहले दिन नरक चतुर्दशी को जब राजपुरा स्थित 25 परिवारों वाले कुष्ठ आश्रम पहुंचे तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की निगाहें कुछ पाने की लालसा में थी। हर कोई सिर हिलाकर अभिवादन कर रहा था। इस आश्रम में शून्य से 18 वर्ष तक के 50 बच्चे, किशोर व युवा रहते हैं। इनमें से कुछेक देहरादून के मिशन स्कूल में पढ़ते हैं तो कुछेक शहर के आसपास स्कूलों में जाते हैं। इनकी फीस मां-बाप की भीख पर निर्भर है। काम करने में असमर्थ कुष्ठ रोगी भी मजबूर होकर अपराध की श्रेणी में शामिल भीख मांगने को विवश हैं। दीपावली को लेकर कोई रौनक नहीं थी। इन बच्चों को कुछेक लोगों से उम्मीद लगी रहती है कि वे पटाखे, फुलझडिय़ां और खिल-खिलौने दे जाएं। प्रतिमाह बिजली का बिल देने में ही असमर्थ ये लोग झालर नहीं लगा सकते हैं। कुष्ठ आश्रम राजपुरा के अध्यक्ष सुमन पाठक कहना था, हमें अपनी चिंता नहीं है। हमारी आधी जिंदगी कट चुकी है। आगे भी ऐसे ही अंधकार में बीत जाएगी। हम बच्चों के भविष्य को लेकर दुविधा में हैं। कुछेक बच्चों ने जैसे-तैसे बीएससी, एनएनएम, जीएनएम, मर्चेंट नेवी का प्रशिक्षण प्राप्त किया। अब यह बच्चे नौकरी के लिए भटक रहे हैं। हमारी दीपावली तभी होगी, जब हमारा भीख मांगना बंद होगा। बच्चों का भविष्य उज्जवल होगा। इस दिन घर के मंदिर में देवी लक्ष्मी से बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं। निकट के ही स्कूल में आठवीं में पढऩे वाले माइकल का कहना था, हम लोग भी चाहते हैं कि नए कपड़े पहनें। घर दीयों की रोशनी से जगमगा उठे। पर मजबूर हैं। इसी तरह अन्य बच्चे जेसिका, रोहित, काव्या, रोशन, गोमती की भी यही उम्मीद है, लेकिन मां-बाप की भीख में यह सब संभव नहीं।