Tuesday, March 12, 2013

जब चीर के हरण पर बदल जाता होली का जश्न...



इस चीर को आसपास के गांवों में घर-घर घुमाया जाता है। इस दौरान चीर के चोरी होने का डर रहता है। जिस गांव में चीर बांधने की परंपरा नहीं रही है, वे चीर चुराने के लिए दूसरे गांवों में जाते हैं। कई बार दोनों गांववालों के बीच संघर्ष तक की नौबत आ जाती है।



गणेश जोशी
सफेद कुर्ता-पायजामा और टोपी पहने हुए होल्यार ढोल, दमाऊ व मजीरे की धुन पर होली के रंग में मदमस्त होकर नाचने का अंदाज देखते ही बनता है। कुमाऊं की अनूठी होली में 'चीर हरण' की परंपरा होली के जश्न के माहौल को ही बदल देती है। चीर बंधन और इसकी पूजा से होली की शुरुआत तो होती है, लेकिन इसके पीछे अद्भुत परंपरा रही है कि अगर किसी गांव में चीर नहीं बांधी जाती थी तो वे दूसरे गांव की चीर को चुरा लेते थे। चुराते पकड़े जाने पर संघर्ष तक की नौबत आ जाती थी, लेकिन समय के साथ यह परंपरा गुजरे जमाने की बात होती जा रही है।
चंदवंशीय सामंतों के समय से आरंभ कुमाऊंनी होली की इस अजीबोगरीब परंपरा के पीछे वैसे कोई बड़ा कारण नहीं नजर आता है, लेकिन जिस तरह की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। आज के दौर में भी कुमाऊं के दूरस्थ गांवों में चीर को चुराने की दिलचस्प परंपरा देखने को मिलती है। वैसे एक दशक पहले तक इस परंपरा का बागेश्वर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ व चंपावत के अधिकांश गांवों के लोगों में जितना अधिक उत्साह था, अब आधुनिकीकरण व पाश्चात्यीकरण से प्रभावित नई पीढ़ी के प्रति इसका क्रेज कम होने लगा है।
जिन गांवों में तत्कालीन सामंतों ने ध्वजा दी थी, वे लोग चीर बांधते थे। आमलकी एकादशी को चीर बांधी जाती है। चीर किसी सार्वजनिक स्थान या मंदिर प्रांगण में बांधी जाती है। बांस अथवा चीड़ के लंबे बांस से इसे बनाया जाता है। इसे चीरवृक्ष या चीर आरोहण कहा जाता है। पुरोहित के मंत्रोच्चारण के साथ गांव के लोगों की ओर से दिए गए सफेद व लाल कपड़े काष्ठ पर बांधने की परंपरा रही है। इसके बाद इस चीर में अबीर व गुलाल छिड़का जाता है। इस चीर के चारों ओर खड़े होकर खड़ी होली गाई जाती है। होल्यार विशेष मुद्राओं में हस्त-पादों का संचालन करते हैं। इस दौरान राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं से संबंधित होली गीतों का गायन करते हैं। इस चीर को आसपास के गांवों में घर-घर तक घुमाया जाता है। इस दौरान चीर के चोरी होने का डर रहता है। जिस गांव में चीर बांधने की परंपरा नहीं रही है, वे चीर चुराने के लिए दूसरे गांवों में जाते हैं। कई बार दोनों गांववालों के बीच संघर्ष तक की नौबत आ जाती है। जिस गांव से चीर का हरण हो जाता है, इसे अमंगल समझा जाता है। फिर इस गांव के लोग बिना चीर के ही होली मनाते हैं। इस चीर के सुरक्षा के लिए चांदनी रातों में किसी एक के घर में होली गाई जाती है। पूर्णिमा की रात को शुभ-मुहूर्त में चीर का दहन कर दिया जाता है। इस पर बांधे गए कपड़े की छीना-झपटी भी होती है। इस कपड़े के टुकड़े को लोग अपने शर्ट पर बांधते हैं।

Sunday, March 10, 2013

पितृसत्तात्मक समाज से उपजी सोच भी जिम्मेदार



कुछ महिलाओं ने जहां कन्या भ्रूण हत्या के लिएपितृसत्तात्मक समाज, पुरुष की सामंतवादी सोच, वंश बढ़ाने के लिए पुत्र की चाह होने को जिम्मेदार माना तो अधिकांश महिलाओं ने स्वयं महिला को ही इसके लिए दोषी माना।




गणेश जोशी
    महिलाएं अब असहाय नहीं रह गई हैं। निरक्षर नहीं हैं। चांद तक पहुंच रही हैं। कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति, चिकित्सा हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर रही हैं। 21वीं सदी के आधुनिक व तकनीक युग में भी कन्या भ्रूण हत्या जैसी तुच्छ मानसिकता समाज के लिए अभिशाप बनकर उभर रही है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दैनिक जागरण की ओर से आयोजित परिचर्चा में महिलाओं ने तीखी टिप्पणी की। इस गंभीर मुद्दे के लिए कई महिलाओं ने स्वयं स्त्री को जिम्मेदार ठहराया तो कुछ महिलाओं ने पितृसत्तात्मक समाज पर दोष मढ़ा। महिलाओं ने मंथन करते हुए सबसे अधिक जोर महिला व पुरुषों की 'सोच' व 'मानसिकता' को दिया.
      महिलाओं पर बढ़ रहे अपराध में बढ़ोत्तरी के लिए परिवार की ही भूमिका नहीं बल्कि बिगड़ते सामाजिक परिवेश को भी जिम्मेदार माना गया। इसके लिए हमारे पाठ्य पुस्तकों से लेकर समाज से हृास हो रही नैतिक शिक्षा की भूमिका पर भी महिलाओं ने सवाल खड़े किए। महिलाओं के विमर्श से उभरा कि बचपन से ही अगर हम अपने बेटे को बेटियों की तरह ही संस्कारवान बने रहने की शिक्षा नहीं देंगे तो परिणाम हमारे सामने बढ़ते महिला अपराधों के तौर पर दिखते रहेंगे। परिचर्चा के दौरान महिलाएं सबसे अधिक कन्या भ्रूण हत्या के मामले में आक्रोशित दिखी। विभिन्न संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़ी महिलाओं ने लिंगानुपात को बैलेंस करने पर सबसे अधिक जोर दिया। इसके कारणों पर कुछ महिलाओं ने जहां पितृसत्तात्मक समाज, पुरुष की सामंतवादी सोच, वंश बढ़ाने के लिए पुत्र की चाह होने को जिम्मेदार माना तो अधिकांश महिलाओं ने स्वयं महिला को ही इसके लिए दोषी माना। ऑल इंडिया वीमेंन्स कान्फ्रेंस की पूर्व अध्यक्ष कुसुम दिगारी व मीडिया प्रभारी विद्या महतोलिया ने तो पुरुष समाज व सामाजिक सोच को इसके लिए बड़ा कारण बताया। अधिकांश महिलाओं का तर्क इस बात पर रहा है कि जब महिला स्वयं को मजबूत कर लेंगी, साक्षर होंगी, आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, स्वयं स्टेंड लेने में समर्थ होंगी, सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत रखेंगी, अभिव्यक्ति के लिए स्वाभिमान के साथ आगे आयेंगी तो वास्तविक नारी सशक्कतीकरण की परिभाषा को चरितार्थ कर सकेंगी। शहर की प्रसिद्ध स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ व कवयित्री डा. श्रद्धा प्रधान सयाना ने दो टूक कहा कि कन्या भ्रूण हत्या नहीं होनी चाहिए। स्त्री का सम्मान बहुत ऊंचा है। अगर स्त्री दृढ़ संकल्प लेती है तो कन्या भ्रूण हत्या को रोका जा सकता है।