Friday, December 30, 2011

नया साल: स्वयं से ही प्रेरित होता रहा


फिर 12 महीने बीत गये। पता ही नहीं चला। काम का बोझ लगातार बना रहा। साल भर व्यस्त रहा। मैंने 2010 के बीत जाने के बाद 2011 के लिए बहुत कुछ सोचा था। काफी उम्मीदें थी। महत्वाकांक्षा थी। कुछ पाने की हसरतें हिलोरें मार रही थी। हर पल को जीने को बेताब रहा। जिन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए हरसंभव प्रयासरत रहा।
इस सबमें मैंने स्वयं को सुंदर बनाने का प्रयास किया। मैंने सोचा कि अगर मैं बेहतर इंसान बन सकता हूं तो इसके लिए मुझे प्रयास करना चाहिये। जीवन में अपना व्यवहार ही अपना दर्पण होता है। इसलिए 12 महीने में अनवरत चलता रहा। जीवन में नया सीखने की ललक को बरकरार रखा।
जनवरी के जाड़े, मई, जून की भीषण गर्मी से लेकर अगस्त की तेज बारिश में भी मैंने उसी अंदाज से कार्य किया। जिस अंदाज में मुझे करना चाहिये। फिर भी कहीं न कहीं कोई कमी अवश्य रह गयी होगी। निश्चित तौर पर और बेहतर जिन्दगी जी सकता था, जीने के लिए उत्साहित था। स्वयं से ही प्रेरित हो रहा था।
मेरा कार्य दैनिक समाचार पत्र में छोटे से शहर की घटनाओं का संकलन कर उसे लिखना है। इसी घटनाओं के संकलन के जरिये मैं अपने उज्ज्वल भविष्य की नींव भी रखना चाहता हूं। उमड़ते-घुमड़ते विचारों को फेसबुक के जरिये भी सार्वजनिक करता रहा। जल्दबाजी में लिखे गये कुछ लेख अपने ब्लॉग में भी लिखते रहा। नई उम्मीद के साथ 2011 को अलविदा कहता हूं।
निश्चित तौर पर 2012 में नई उम्मीदों के साथ उमंग, स्फूर्ति व ऊर्जा का संचार होगा। जीवन के अनसुलझे पहलुओं को समझने के बजाय खूबसूरत जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी। सभी के प्रति प्यार व स्नेह बना रहेगा।

Thursday, December 29, 2011

वीरान सा लगने लगा गांव

वीरान सा लगने लगा गांव
गणेश जोशी
वाह! कितना खूबसूरत था मेरा गांव। 'एकता की ताकतÓ कहावत को चरितार्थ करता था। गोपेश्वर नदी से कुछ दूरी पर स्थित गांव सिमकूना जनपद मुख्यालय बागेश्वर से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित है। ग्रामीणों की देवी-देवताओं में पूरी आस्था थी। एक दूसरे पर अटूट विश्वास था। परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय व अनुसूचित जाति के बीच भेदभाव तो था लेकिन आपसी रिश्ता इतना प्रेमपूर्वक था कि सभी लोग एक दूसरे के कार्य में सहयोग अवश्य करते थे। प्रत्येक के सुख-दु:ख में भागीदार रहते थे।
किसी घर में शादी हो या किसी की छत डालनी हो, सभी एकजुट होकर मनोयोग से हंसी-खुशी कार्य संपन्न कराते थे। इस आनंदमयी माहौल में एक दूसरे के प्रति लगाव व आत्मीयता साफ झलकती थी। कठिन से कठिन कार्य व भारी से भारी सामान उठाना हो तो सभी लोग इस कार्य को सहजता से संपन्न कराते थे। गांव की बेटी को शादी के समय विदा करना हो या किसी बीमार व्यक्ति को 15 किलोमीटर दूर अस्पताल में ले जाने के लिए लिए मुख्य सड़क तक पहुंचाना हो, ग्रामीण डोली में पहुंचा आते थे। एक व्यक्ति की पीड़ा सभी महसूस करते थे। किसी के घर में गाय या भैंस 'ब्याताÓ था तो आसपास घरों के सभी बच्चों को 'बिगौतÓ खाने के लिए बुलाया जाता था। ग्रामीणों के क्रियाकलाप कृषि व पशुपालन ही मुख्य था। करीब एक हजार परिवार की आबादी वाले गांव के अधिकांश लोग फौज में थे तो कुछेक शिक्षक। चार-पांच पीढ़ी तक के लोग एक ही बाखली में रहते थे। सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। अभाव की तो अनुभूति ही नहीं होती थी। यद्यपि जीवन संघर्षपूर्ण एवं अभावों से ग्रस्त था। इसके बावजूद ग्रामीणों का जीवन चिंतामुक्त होता था। न अधिक सुखभोग की महत्वाकांक्षाएं होती थी और न ही उनको प्राप्त करने के लिए बेहताशा भागदौड़ भरी जिन्दगी थी। सभी लोग प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं से संतुष्ट थे। बहुत समय नहीं हुआ है, विकास की चकाचौंध ने, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ईष्र्या, द्वेष भाव इतना प्रबल हो गया है कि आज मेरा प्यारा सा गांव भी इसकी चपेट में है। संयुक्त परिवार गांव से ही टूटने लगे। भले ही मेरे गांव में बिजली है और घर तक सड़क भी पहुंच गयी है। पानी की व्यवस्था भी है। अधिकांश घरों में डीटीएच के माध्यम से टीवी चल रही है। अधिकांश ग्रामीणों के पास मोबाइल फोन की सुविधा भी उपलब्ध हो गयी है। नजदीक में सरकारी प्राथमिक विद्यालय है। फिर भी यह गांव पलायन की पीड़ा झेल रहा है। घरों में ताले लटके हैं और निरीह घर टूटने की कगार पर हैं। गांव में अब न पहले जैसी रौनक रही और न वैसी आत्मीयता। अब न तो किसी का मन खेती करने में लगता है और न ही पशुपालन में। शराब की बेतहाशा लत ने ग्रामीणों के अपने आपसी रिश्ते को तार-तार कर दिया। अब एक दूसरे पर विश्वास नहीं दिखता है। महत्वपूर्ण पर्व होली का इंतजार जहां पहले बाहर नौकरी करने वालों को बेसब्री से रहता था, वहीं अब गांव के लोगों में ही इसका क्रेज नहीं दिखता है। छह साल बाद गांव में होली के लिए घर गया तो रास्ते में ही आसपास गांव के युवकों ने मुझे लूटने का प्रयास किया। विकास के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं है। 15 किलोमीटर दूर गांव में स्वास्थ्य केन्द्र है, इसमें भी चिकित्सक शायद ही उपलब्ध रहता है। बाकी चिकित्सा सेवा झोलाछाप डाक्टरों के हवाले है। प्राइमरी से ऊपर तक की शिक्षा के लिए कई किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता है। स्वरोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। कृषि व पशुपालन के लिए भी बेहतर व्यवस्था नहीं है। पूरी तरह मौसम पर आधारित खेती से ग्रामीणों के लिए तीन महीने तक राशन उपलब्ध नहीं हो पाता है। अंधाधुंध कटान से सूखे जंगलों के कारण पशुओं के लिए चारा तक नसीब नहीं हो रहा है। अज्ञानता, अशिक्षा के कारण नौजवान गलत दिशा की ओर भटकने को मजबूर है। राज्य सरकार व केन्द्र सरकार की हवाई व लोक लुभावन घोषणाओं की पोल खोलता गांव न जाने कब तक विकास की बाट जोहता रहेगा। गांव में सांसद वोट मांगने के अलावा कभी पहुंचे होंगे। यही हाल स्थानीय विधायक का भी है।

Friday, December 9, 2011

न जाने और क्या क्या...फिर

  
        एक सामान्य लड़का, बेटा, भाई, भतीजा, पत्रकार, जीवन के गूड रहस्यौ के बारे मे सोचने वाला, समाज के भाति-भाति चेहरो को पढ़ने की कोशिश करने वाला, चिंतन करने वाला, न जाने और क्या क्या...फिर भी..जीवन मे खालीपन...अधूरापन...सुकून की तलाश, शांति को भटकता मन, विचारो के अंतर्द्वंद से मुक्ति की छटपटाहट...आखिर क्या खोजते रहता होगा इंसान और किसलिए...  कब तक, कहा तक, किस मंजिल तक, चलते रहना है, दोड़ते रहना है, आखिर किस पड़ाव तक पहुचने के लिए, कभी हम इस तरह के विचारो को समझने की कोशिश करते है.
हम भी गज़ब के इंसान होते है, कई बार लगता है, जो हम कर रहे है, यह ठीक है या गलत। फिर सोचने लगते है, सही या गलत का निर्धारण करने वाले हम कोन हो सकते है। जिस प्रकृति की यह संरचना है, उसने हमे कुछ तो बताया नहीं। फिर भी हम वो करते है, जिसमे हम संतुष्ट होते है।  तब हम सारे नियमो को क्यू भूल जाते है। हमारे पास उस प्रश्न का जवाब नहीं होता है। नियम क्या है और इन्हे किसने बनाया, ज्यादा पचड़े मे पड़ने के बजाय, फिर हम आगे चलने लगते है, तुरंत विचार आता है, आज तो कर लेते है, बाकी कल देखेंगे। इसके बाद कल का कोई अर्थ नहीं रह जाता है, जब हम आज ही वह कर लेते है, जो हमे करना होता है। कभी-कभार हम येसी बहसो मे भी कूद जाते है, जिसके विपरीत हम काम कर रहे होते है। यह विषय बहुत बड़ा है, जितना सोचो उतना कम...।
फिर आपसे मिलते रहेगे...

Thursday, December 8, 2011

फायदे से अधिक नुकसान का भय

खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

:::दृष्टिकोण:::
खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर देश में जिस तरह का बवंडर मचा है, इससे राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि आम व्यापारी वर्ग भी परेशान नजर आ रहा है। फायदे से अधिक इसके नुकसान का भय बना हुआ है। वालमॉर्ट जैसी कंपनियां अगर भारतीय बाजार पर कब्जा कर लेंगी तो आम व्यापारियों का क्या होगा? जल्दबाजी में अगर इस पर किसी तरह का निर्णय या राय देना उचित नहीं होगा। फिर भी विपक्षी दलों के घोर विरोध के बाद केन्द्र सरकार ने मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। हालांकि इस पर आम राय बनाने की दलील भी दी जा रही है। अब देखना है कि केन्द्र सरकार का जल्दबाजी में लिया गया निर्णय, कितना सही या कितना गलत होता है।
खुदरा बाजार में केवल 30 प्रतिशत ही सामान छोटे उद्योगों से खरीदा जाना और 70 प्रतिशत बड़े उद्योगों से खरीदने का औचित्य भी नहीं समझ में आता है। अगर पूरी सामग्री विदेशों से ही आएगी। विदेशों की घटिया सामग्री का उपयोग भारतीय करेंगे तो इसके दूरगामी परिणाम घातक ही होंगे। विपक्षी दलों का विरोध करना जायज लग रहा है लेकिन इस योजना के महत्वपूर्ण व लाभकारी मुद्दे गौण हो गये। अगर गंभीरता से विचार किया जाय तो लाभ नहीं के बराबर और घाटा अधिक नजर आ रहा है।
केन्द्र सरकार के इस निर्णय से कई सवाल भी खड़े हो रहे थे। अगर वालमार्ट जैसी विदेशी कंपनियां 49 प्रतिशत में ही निवेश को तैयार थी तो क्यों 51 प्रतिशत तक की अनुमति दी गयी। यह भी सर्वविदित है कि अमेरिका में रिटेल कारोबार में वालमार्ट का वर्चस्व है। इस तरह की कंपनियों का रिकार्ड रोजगार देने के मामले में भी ठीक नहीं है। अगर हमारी सरकार रोजगार के नाम पर ठेकेदार के अधीन भारत के अधिकांश लोगों को रोजगार देने की बात करती है तो इस निर्णय को हमेशा के लिए ही ठंडे बस्ते में डाल देना उचित होगा।

Sunday, November 27, 2011

फिर ऐसी हिंसा क्यों?


गणेश जोशी
 
शेविंग करने बारबर की दुकान पर गया था। दो नवयुवक शेविंग कराते-कराते आपस में बात कर 
रहे थे। हिन्दू, मुस्लिम दंगा क्यों हो गया होगा? बिना कारण एक-दूसरे को मारने-काटने दौड़ 
रहे हैं। जबकि घटना के पीछे कारण देखें तो कुछ भी नहीं नजर आता है। बताते हैं कि कुरान 
शरीफ का पन्ना किसी के घर के सामने फेंका गया था। अगर वास्तव में फेंका भी गया था तो 
क्या हो गया? आपस में बातचीत कर लेते। आपसी प्रेम भाव से समाधान निकाल लेते। इतनी बड़ी 
हिंसा करने की जरुरत क्यों हो गयी? दूसरा कहता है, मारपीट करने वाले ऐसे लोग लोग थे, 
जो बिल्कुल आवारा जैसे लग रहे थे। कोई लुंगी पहना था तो कई फटी पेंट में था। कम 
पढ़ा-लिखा बारबर भी रुचि से उनकी बातें सुनता है और बातों शामिल हो जाता है। कहता है, 
भाई दंगा करके तो कुछ हासिल हो नहीं सकता है। फिर लोग ऐसा क्यों करते होंगे, कुछ समझ में 
नहीं आता। बात बिल्कुल ठीक है, जिनके पास कोई काम-धाम नहीं होता है, वे ही ऐसा करते 
हैं। इस बीच मैं शेविंग के लिए इंतजार करते हुए समाचार पत्र पढ़ रहा था। साथ ही उनकी 
बातों को भी ध्यान से सुन रहा था।
मेरी भी समझ में उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में स्थित औद्योगिक नगरी रुद्रपुर में हुए दंगे का 
अचानक सांप्रदायिक रूप धारण कर लेना गले से नहीं उतर रहा था। प्रशासन ने तो पूरी तरह 
सांप्रदायिक दंगा घोषित कर दिया। इस दंगे के पीछे सांप्रदायिक होने के भी कई रहस्य नजर 
आने लगे हैं। एक सामान्य कागज का टुकड़ा कहीं गिरा है। या फिर पाक कुरान शरीफ का पन्ना 
किसी ने जानबूझकर फेंका या फिर किसी की गलती की वजह से गिर गया था। सबसे पहले किसने 
उसे पन्ने को देखा। फिर तुरंत पत्थर, हथियार व सुतली बम कहां से आ गये? फिर कौन लोग 
किसे मारने-पीटने दौड़ पड़े। पाक कुरान शरीफ तो हिंसा की बात नहीं करता है। फिर 
अकारण, बेवजह निरीह लोगों की जान खतरे में क्यों आ गयी? न ही हिन्दुओं के किसी ग्रंथ में 
हिंसा का जिक्र है और न ही गुरु ग्रंथ साहिब की ऐसी ही कोई शिक्षा है। कौमी एकता के 
साथ अमन की दुआयें करने वाला कौम की शिक्षा भी हिंसापरक कैसे हो सकती हैं?
अगर एक संप्रदाय प्रशासन व पुलिस के प्रति आक्रोश व्यक्त रहा था तो फिर अचानक दूसरे व 
तीसरे संप्रदाय के लोग वहां कैसे पहुंच जाते हैं? अब हवा में कई तरह के अनुत्तरित प्रश्न तैरने के 
छोड़ दिये गये हैं, शायद ही इनका जवाब उतनी बारीकी से खोजा जाएगा। जितनी की 
आवश्यकता है।
जिस औद्योगिक नगरी में भारत के कोने-कोने से अलग-अलग जाति, धर्म, संप्रदाय के लोग आपस 
में नौकरी करते हैं। आपस में हंसते-मुस्कुराते हैं। खेलते हैं। साथ भोजन करते हैं। साथ घूमने जाते हैं। 
इसके बाद भी इस नगरी में सांप्रदायिक हिंसा की मनगढं़त कहानी किसी के गले नहीं उतर पा 
रही है। उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव निकट हैं। इसके पीछे राजनीति चालबाजियों से भी 
इंकार नहीं किया जा सकता है, भले ही अब राजनीति दलों के नेता किसी भी तरह से 
अपने-अपने तर्क ही क्यों न दे रहे हों। इन तर्कों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का सुनियोजित 
होने से भी स्पष्ट तौर पर इंकार नहीं किया जा रहा है। इसके बाद ऐसे अवसरवादी नेताओं व 
हिंसा फैलाने वाले समाज के अराजक तत्वों को आम आदमी की जान लेने से क्या हासिल होगा? 
जान चाहे मुस्लिम की हो हिन्दू की। आखिर वो इंसान ही तो है। संप्रदाय विशेष में नफरत 
फैलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकना कहां का न्याय है? यह कैसी समझ है?
जबकि आम जीवन में बचपन से लेकर नौकरी और त्योहारों तक में नफरत कहीं नजर नहीं आती है। 
मुस्लिम संप्रदाय लोग बारबर हो या बढ़ई का कार्य करते हों, अधिकांश हिन्दुओं के इलाके में 
बेपरवाह होकर कार्य करते हैं। यहां तक कि प्रतिवर्ष रामलीला के मंचन से लेकर रावण का 
पुतला बनाने तक में हिन्दुओं के साथ मुस्लिम भाई भी कौमी एकता का संदेश देते हुए दिख जाते 
हैं। कई त्योहारों में एक दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएं दी जाती हैं। इस स्थिति के बाद मुझे 
नहीं लगता है कि कोई शिक्षित हिन्दू हो या मुस्लिम या फिर किसी अन्य संप्रदाय का ही 
क्यों न हो। इस तरह की हिंसा फैलाने के बारे में भी सोचता होगा। फिर ऐसा क्यों...?
अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती दो अक्टूबर को घटित इस शर्मनाक 
घटना पर उनका भजन जो सभी संप्रदायों को एकसूत्र में बांधने का संदेश देता है-
रघुपति राघव राजा राम,
पतित पावन सीता राम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सनमति दे भगवान।

Saturday, November 26, 2011

मीडिया में नकारात्मकता से परहेज करती हैं प्रतिभा आडवाणी


मीडिया

भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी की बेटी प्रतिभा आडवाणी ने कहा कि मीडिया में नकारात्मक चीजों को ज्यादा नहीं प्रकाशित व प्रसारित करना चाहिये। इससे समाज में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। केवल टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी को नकारात्मक रूप से पेश कर देना कतई उचित नहीं है।
जन चेतना यात्रा के साथ चल रही प्रतिभा आडवाणी 38वें दिन 18 व 19 नवंबर को हल्द्वानी (नैनीताल) में थी। इस दौरान प्रतिभा ने कहा कि न्यूज चैनल 24 घंटे से जब नकारात्मक चीजों को दिखाते हैं तो आम आदमी पर इसका गलत असर जाता है। वैसे समझ में नहीं आता है कि कौन सी मानसिकता के तहत इस तरह के समाचार व कॉमेडी शो दिखा रहे हैं। उन्होंने कहा कि समाचार सकारात्मक होने चाहिये। सोच सकारात्मक होनी चाहिये। जब उनके पूछा गया कि आप किसे नकारात्मक कहती हैं, तो इसका जवाब देने के लिए फिर समय नहीं था। क्योंकि जन चेतना यात्रा का रथ चलने को तैयार हो रहा था।

Sunday, October 9, 2011

कोई पार नदी के गाता



भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्‍वर
ककड़ी के खेतों से उठकर,
आता जमुना पर लहराता
कोई पार नदी के गाता।

होंगे भाई-बंधु निकट ही
कभी सोचते होंगे यह भी
इस तट पर भी बैठा कोई, 
उसकी तानों से सुख पाता
कोई पार नदी के गाता।

आज न जाने क्‍यों‍ होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता, 
सदा इसे मैं गाता जाता
कोई पार नदी के गाता। 

-  हरिवंश राय बच्‍चन 

Monday, October 3, 2011

...ऐसे नेताओं को भगाओ

    जो नेता आपकी मांगों पर ध्यान नहीं देते हैं। आपकी समस्याओं से मुंह मोड़ते हैं। मूलभूत समस्याओं 
के निराकरण को लेकर ही सजग नहीं है। भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं। अराजकता को बढ़ावा 
देते हैं। ऐसे नेताओं को वोट मांगते समय जमकर फटकार लगाओ। जूते की माला पहनाओ। काले झंडे 
दिखाओ। उनके घोषणापत्र में लिखी गयी झूठी घोषणाओं को चिल्ला-चिल्लाकर सभी को बताओ। 
अच्छे के लिए अच्छा और बुरे को बुरा कहो। सबसे बड़ा हथियार आपके हाथ में है। गुप्त मतदान 
होता है। इसमें तो आपको डरने की आवश्यकता नहीं है। आप वोट दें। ऐसे नेताओं को वोट दो, 
जो स्वच्छ छवि का हो। उसका घोषणापत्र आपके अनुकूल हो। इस बार तो आप गलती न करें।
आपका घोषणा पत्र
तहसील में घूसखोरी बंद की जाय।
आरटीओ, पासपोर्ट आदि कार्यालयों में दलाली व घूसघोरी बंद हो।
कार्यालयों में फाइल आगे बढ़ाने के लिए घूस न देनी पड़े।
घर व प्रतिष्ठान बनाने के लिए नक्शा पास कराने में घूस न देनी पड़े।
सड़क बनाने में कमीशनखोरी बंद हो।
पेयजल लाइन बिछाने के लिए कमीशन खोरी न हो।
पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के लिए पैसा न देना पड़े।
स्कूल में एडमिशन के लिए डोनेशन के नाम पर वसूली बंद हो।
सदन में प्रश्न करने के लिए पैसे न देने पड़े।

Sunday, October 2, 2011

कहीं पे धूप की चादर



कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।

ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहां बबूल के साये में आके बैठ गए।

-दुष्यन्त कुमार

Monday, September 12, 2011

अन्नागीरी और साहित्यिक शून्यता

 
रघुवीर चौहान
पूरे 12 दिन, 288 घंटे। 74 साल के बूढ़े आंदोलनकारी का गांधीवादी आंदोलन। देशभर में 
गांधीवादी हजारे की अन्नागीरी। जनपद के जनपद अन्नामय हो गए। गांव, गली, मोहल्ले, हर 
तरफ बस अन्ना ही अन्ना। अपने पहाड़ की कुमाऊंनी धरती पर भी लहराते तिरंगे, 'मैं अन्ना 
हूंÓ की टोपियों से ढके सिर दिखाई देते रहे।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन, धीरे-धीरे समय बढ़ता गया, लोग जुड़ते गए, कारवां दिनोदिन 
बड़ा होता गया। रिंकू, टिंकू, सोनू, मोनू पढ़ाई छोड़ 'एक-दो-तीन-चार, बंद करो ये 
भ्रष्टाचारÓ के नारे लगाने लगे तो गुरुजी, मास्साब अपने स्तर के गंभीर नारों को आवा$ज देने 
लगे। इंसा$फ दिलाने वाले वकील साहब, जीवनदाता डॉक्टर साहब मैदान में कूद पड़े तो लायंस 
जैसे संभ्रांतजनों की संस्थाएं भी इस यज्ञ में आहुति देने को पहुंच गईं। व्यापारियों ने एक दिन 
को कारोबार को तिलांजलि दे दी। अपने कुमाऊं में तो बिजली कर्मी भी यही गाते सुनाई 
दिए- 'मिले सुर मेरा-तुम्हारा तो सुर बने हमारा।Ó
मगर एक बड़ा ताज्जुब। पूरे आंदोलन में साहित्य जगत में सन्नाटा रहा, घुप्प अंधेरा रहा। समाज 
के दर्पण-साहित्य के सर्जकों में शून्यता दिखाई दी। कुमाऊं को साहित्य भूमि कहा जाता रहा 
है। साहित्य नगरी अल्मोड़ा से भी कोई आवा$ज नहीं उठी। मंडल के अन्य पांच $िजलों- 
नैनीताल, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, ऊधमसिंह नगर, यानी सभी जगहों के साहित्यकार, 
कवि, शायर शांत रहे। छोटी से छोटी काव्यगोष्ठी और बड़े से बड़े कवि सम्मेलन, मुशायरों में 
राजनीतिज्ञों के दिल को भेद डालने वाले तीरंदा$जों के तरकश तीरविहीन न$जर आए।
वैसे यह साहित्यिक शून्यता राष्ट्रीय स्तर पर रही। कुमार विश्वास ने कवियों को तो 
आलोचना का भागी बनने से बचा लिया, मगर साहित्यकारों, शायरों में तो कोई हिम्मत नहीं 
दिखा पाया।
इतिहास के पन्नों में तो हमने यही पढ़ा कि जंग-ए-आ$जादी में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका 
रही। उन्होंने अपने $फन से लोगों को जोड़ दिया, मगर आ$जादी की इस दूसरी 
लड़ाई-भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में उनके वंशजों में वह चेतना, वह जागरूकता गायब-सी लगती 
है। आंदोलन निपट गया। उम्मीद पर दुनिया $कायम है। सो हम भी उम्मीद करते हैं कि शायद 
वे अब इस पर मंथन करने को समय निकाल लें।

अन्ना का आंदोलन निस्संदेह सराहनीय है, मगर मीडिया ने जिस तरह उनको दूसरे गांधी के 
खिताब से नवा$जा, मुझे लगता है कि वह अतिश्योक्ति है। गांधी के $जमाने में मूल्य आधारित 
आंदोलन होते थे, मगर अब तो वे मूल्य रहे नहीं। अब तो भेड़ चाल है। इस आंदोलन में ही 
नौजवानों का राजनीतिक दलों ने जमकर इस्तेमाल किया। नेट पर अश्लील भाषा का ख़्ाूब 
प्रयोग किया गया, जिससे लगता है कि कहीं यह आंदोलन उच्छृंखल न हो जाए।
- प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोहीÓ
निदेशक, महादेवी वर्मा सृजन पीठ

Monday, August 22, 2011

भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएगा मेरा देश

      
      मेरे मुहल्ले में रहने वाले एक छोटे व्यापारी नहीं जानते हैं कि जन लोकपाल बिल क्या है? फिर भी वह देश की खातिर इस आंदोलन में शरीक होना चाहते हैं। दिल्ली रामलीला मैदान में जाने की बात करते हैं। उनके दिमाग में केवल एक प्रश्न कौंध रहा है, अगर यह आंदोलन सफल रहा तो देश के भ्रष्ट नेताओं को सजा मिलेगी। ऐसे नेता जेल के अंदर होंगे। कड़ी से कड़ी सजा इन्हें मिलेगी। देश में राम राज्य होगा। बच्चे को स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए घूस नहीं देनी पड़ेगी। बिजली का कनेक्शन लेना हो या पानी का कनेक्शन। जमीन की रजिस्ट्री और दाखिल खारिज कराना हो। कोतवाली में रिपोर्ट दर्ज करानी हो या जन्म व मृत्यु प्रमाण पत्र बनाना हो। ट्रांसफर कराना हो या पोस्टिंग करानी हो। बैंक से लोन लेना हो या फिर किसी व्यवसाय शुरू करने के लिए सरकार से कोई योजना मंजूर करानी हो। समाज सेवा के नाम पर गैर सरकारी संगठनों के संचालकों को विभाग से काम लेना हो या टेंडर पास कराना हो। तहसील कार्यालय मानो भ्रष्टों का अड्डा हो। किसी तरह के प्रमाण पत्र की आवश्यकता हो, बिना सुविधा शुल्क (घूस) के शायद ही आपका काम होगा। ड्राइविंग लाइसेंस बनाना हो या पासपोर्ट ही क्यों न बनाना हो। बिना दलाल के मदद से आपका यह कार्य संभव नहीं होगा। खुफिया रिपोर्ट भी आपकी तभी ठीक लगेगी, जब आप उस कर्मचारी की जेब गर्म करोगो, नहीं तो देखते ही रह जाओगे। सरकारी अस्पतालों में उपचार कराने में भी हर कदम पर आपको व्यक्तिगत तौर पर डाक्टर से लेकर नर्स तक को पैसा देना होता है। मेडिकल सार्टिफिकेट भी बिना सुविधा शुल्क के नहीं बनाया जाता है। एक तरह से यह तो छोटे स्तर का भ्रष्टाचार है। बड़े स्तर के भ्रष्टाचार की परिधि में तो टू जी स्पेक्ट्रम से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों सरीखे घोटालों को याद किया जा सकता है। छोटे से बड़े कार्य को करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कदम-कदम पर घूस लेना होता है या फिर देना होता है। चाहे यह मजबूरी में दिया जाय या फिर सुविधा शुल्क के तौर पर। आखिर भ्रष्टाचार को ही इंगित करता है। जन-जन के अन्ना के जन लोकपाल बिल से कितने तरह का भ्रष्टाचार दूर होगा, अभी शायद ही इस पर कोई स्पष्ट तौर नहीं कह रहा है।

Thursday, August 18, 2011

सर्मथन तो है लेकिन संकल्प कहां!

  भ्रष्टाचार कहां है और कैसे होता है? किस-किस स्तर पर होता है? कौन भ्रष्टाचार करता है? कितने प्रकार है यह भ्रष्टाचार? न जाने कितने सवाल लोगों के मन में कौंध रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे तो महज एक प्रतीक हैं लेकिन भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए जन लोकपाल बिल के अलावा और क्या हो सकता है? यह प्रश्न भी नई पीढ़ी के मन में कौंध रहा है। गली-मोहल्लों से लेकर पान की दुकान हो या समाचार पत्रों का कार्यालय, सरकारी कार्यालय हो या फिर पियक्कड़ों की जमात ही क्यों न हो। जिधर नजर दौड़ायें अन्ना के आंदोलन पर जबरदस्त तर्क-वितर्क से लेकर कुतर्क तक हो रहे हैं। समर्थन का जहां तक सवाल है, इसमें कोई पीछे नहीं हैं। भले ही वह गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा ही क्यों न हो। या फिर सुबह से शाम तक भ्रष्टाचार में ही लिप्त क्यों न रहता हो। इसमें कांग्रेस पार्टी को छोड़कर बाकी सभी दलों के कार्यकर्ता हो या डाक्टर, वकील, व्यापारी, छात्रनेता या राजनेता पूरी तरह समर्थन में नजर आ रहे हैं। अन्ना के समर्थन का जनसैलाब छोटे-छोटे शहरों से लेकर बड़े शहरों  तक जबरदस्त तरीके से फैल रहा है। अन्ना के समर्थक टेलीविजन के स्क्रीन पर दहाड़ मारते हुए समाचार पत्रों के मुख पृष्ठ तक झंडे-बैनरों के साथ चलते दिखायी पड़ रहे हैं। केन्द्र सरकार के इस सशर्त आंदोलन में सिविल सोसाइटी का जन लोकपाल बिल संसद में पारित होगा या नहीं। इसकी पूरी उम्मीद करना तो अभी बेवकूफी होगी। लेकिन इस समय देश में जो माहौल है, इससे लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा साफ झलक रहा है। भ्रष्टाचार में ही लिप्त लोग भले ही अन्ना के समर्थकों में क्यों न हों, लेकिन हर आदमी भ्रष्टाचार से मुक्ति पाना चाहता है। लेकिन क्या उम्मीद की जा सकती है कि जिस तरह केवल बाहरी समर्थन के लिए जबरदस्त भीड़ जुट रही हैं, लोग क्या इसी सोच के साथ भ्रष्टाचार से लडऩे का संकल्प लेंगे? हर शहर में जितने लोग अन्ना के समर्थन के नाम पर अनशन, धरना-प्रदर्शन और जुलूस निकाल रहे हैं, क्या उसी अंदाज में दैनिक जीवन में भ्रष्टाचार से लडऩे का वास्तविक रूप  दिखेगा। नये उम्मीद के साथ...

Tuesday, August 16, 2011

मत कहो, आकाश में

 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है ।

-दुष्यन्त कुमार

बाढ़ की संभावनाएँ

 


बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं
और नदियों के किनारे घर बने हैं ।

चीड़-वन में आँधियों की बात मत कर
इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं ।

इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं
जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं ।

आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं ।

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं ।

अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए
हमसफ़र ऊँघे हुए हैं, अनमने हैं ।

-दुष्यन्त कुमार

हो गई है पीर पर्वत


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
                                    -दुष्यन्त कुमार

Friday, July 29, 2011

दो घंटे, दो कप चाय, दो प्रकरण, नतीजा सिफर


     तहसीलदार के कार्यालय का आंखों देखा हाल
     
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          होठों पर गहरी लिपस्टिक,  लिपा-पुता चेहरा, करीने से साड़ी पहने हुई एक महिला नेत्री तहसीलदार के कार्यालय में आकर्षक भाव भंगिमाओं के साथ प्रवेश करती है। अपनी मस्त अदाओं से मानो तहसीलदार को सम्मोहित कर रही हो। उसके साथ आयी एक दर्जन अन्य महिलाओं के होठों पर भी गहरी लिपस्टिक लगी थी। महिला नेत्री तहसीलदार को अपने क्षेत्र की समस्या ऐसे बताने लगी, जैसे कोई सुंदरी अपने प्रेम जाल में फंसाने के लिए प्रपंच रच रही हो। महिला के प्रश्नों के जवाब भी सुडौल व आकर्षक दिखने वाले तहसीलदार भी अनूठे अंदाज में दे रहे थे।
महिला नेत्री ने पूछा, सर फोटो पहचान पत्र नहीं बन रहे हैं।
तहसीलदार बोले- मैडम आप जानती हैं। फोटो पहचान पत्र न शासन बनाता है और न प्रशासन। निर्वाचन आयोग बनाता है।
इस जवाब पर महिला नेत्री अभिनेत्री की तरह पीछे मुड़ी बोली, समस्या और भी है। झट से बोली, राशन सभी को नहीं मिलता है, तो यह राशन कहां जाता होगा?
तुरंत तहसीलदार ने एक अधिकारी को फोन किया, कारण जानना चाहा। उनके चेहरे के हाव-भाव से लग रहा था कि मानो समस्या अत्यधिक जटिल है। इसका समाधान खोजना तहसील स्तर तो छोडिय़े जिला स्तर पर भी संभव नहीं।
हाजिरजवाब तहसीलदार को कोई न कोई जवाब तो देना ही था, बोले, अगली बार जब आप शिकायत करने आयेंगी, तब आसपास के क्षेत्र की भी समस्या पता कर लेना। हो सकता है, यह समस्या केवल आप की ही नहीं, बल्कि सभी लोगों की हो, तब आप खुद समझ सकती हैं।
कुशल प्रशासक के तौर पर तहसीलदार के इस अजीबोगरीब उत्तर से भले ही महिला नेत्री व उसके साथी आपस में बड़बड़ाते हुए दरवाजे से बाहर चली गयी। इससे तहसीलदार की बला तो टल गयी लेकिन समस्या का समाधान तो नहीं हुआ। इतने में गहरी सांस लेते हुए तहसीलदार बोले- समस्या ट्रांसफर हो गयी यानि कि बला टल गयी। इतने में महिला नेत्री के गांव के ग्राम प्रधान भी वहां मौजूद थे, वह बोल पड़े, समस्या तो है, समाधान इतना आसान नहीं। दुकानदार भी मक्कार है।
दूसरा प्रकरण: तहसीलदार से जान-पहचान के चलते मैं भी एक कार्य के लिए उनके पास गया था। पत्रकार होने के नाते उन्होंने मुझे अपने निकट की कुर्सी पर बैठाया। तुरंत चाय का आर्डर दिया। मैंने भी उन्हें एक साथी के भाई का स्थायी निवास प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए रसीद दी। उन्होंने कार्य होने का भरोसा जताया। खैर, मैं भी आश्वस्त था कि जब उनके निकट बैठा हूं तो कार्य हो ही जाएगा। बातचीत, लोगों की समस्या सुनने के साथ ही एक घंटा कब व्यतीत हुआ पता ही नहीं चला, फिर मैंने कार्य के बारे में पूछा। तहसीलदार बोले, हां, हां जोशी जी कार्य हो जाएगा। फिर उन्होंने चाय का आर्डर दिया। इस बीच मेरी जैसी समस्या के दर्जनों लोग आये। उनको तीन बजे बाद आने को कह दिया गया था। जब दूसरी कप चाय पी ली तो मैंने कहा, भाईसाब बताइये, अभी और कितना समय लगेगा? उन्होंने कहा, जोशी जी आप मुझे साढ़े चार बजे फोन करें। मैं आपको बता दूंगा। कार्य होने की प्रत्याशा में मैं वहां से चल दिया। मैंने साढ़े चार बजे फोन किया तो साहब मिटिंग में थे। छह बजे फिर फोन किया तो उन्होंने बताया, भाई एसडीएम साहब रामनगर से सात बजे चलेंगे। मैंने पूछा, भाईसाहब, कल देहरादून में सुबह 10 से काउंसिलिंग है। इसके लिए स्थायी निवास प्रमाण पत्र की आवश्यकता है। शाम को आठ बजे ट्रेन है। अब कैसे होगा? उन्होंने कहा एफिडेविट लगा दीजिए, 10 दिन के भीतर जारी कर दूंगा।
तहसीलदार की स्मार्टनेस से मैं तो उनसे अधिक तो कुछ नहीं कह सका लेकिन अपने राज्य की विसंगतियों पर सोचने को मजबूर हो गया। पहले पटवारियों के हड़ताल के चलते स्थायी निवास प्रमाण पत्र नहीं बना था, जब जरुरत थी मुझ जैसे तमाम लोग तहसील पहुंचे। उन्हें उस दिन स्थायी निवास प्रमाण पत्र हासिल करना जरूरी था। दिन भर लोगों ने माथापच्ची की। जब निराशा मिली तो शाम को काउंसिलिंग के लिए देहरादून की ओर चल दिये। दो घंटे में दो कप चाय और दो प्रकरण तो महज बानगी भर हैं। इस तरह के करीब एक दर्जन से अधिक प्रकरण इस बीच में मेरे आंखों के सामने से गुजरे। अधिकांश समस्याओं में समाधान तो नहीं लेकिन लोगों का समय बर्बाद हो गया।
भारत में अज्ञानता भी एक बड़ी वजह है, इस बीच कई ऐसे लोग वहां पहुंचे, जिन्हें दूसरे अधिकारियों व कर्मचारियों के पास जाना था, वे तहसीलदार से अनावश्यक बहस कर रहे थे। इस तरह के बेमतलब व अनावश्यक बहस से तहसीलदार की खीज भी स्वाभाविक प्रतीत हो रही थी।
               जय हिन्द

Friday, July 22, 2011

मीडिया: करे कोई, भरे कोई


       समाज में चौथा स्तंभ का दर्जा हासिल है मीडिया को। बहुत पावरफुल है मीडिया। मीडिया की आड़ में कुछ भी किया जा सकता है। खासकर ऐसा कार्य, जिसे सामान्य तरीके से अंजाम नहीं दिया जा सकता है। इसमें भले ही किसी तरह का कुकृत्य हो या दलाली। इस तरह का अवैध कार्य केवल बड़े शहरों में ही नहीं बल्कि छोटे-छोटे शहरों में भी मीडिया की आड़ में धड़ल्ले से हो रहा है। कुमाऊं का प्रमुख शहर हल्द्वानी भी इसकी चपेट में है। पिछले दिनों सहायक पुलिस अधीक्षक पी रेणुका देवी ने एक सैक्स रैकेट का पर्दाफाश किया। शहर की अच्छी-खासी आबादी वाले कॉलोनी में लंबे समय से जिस्मफरोशी का धंधा चल रहा था। जब इस धंधे में लिप्त महिला संचालक को पकड़ा तो उसने खुलेआम इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े एक पत्रकार का नाम लिया। उसने यहां तक कह डाला कि यह पत्रकार पैसा तो लेता था, साथ ही जिस्मफरोशी के धंधे में भी था। इसमें कुछ पुलिस कर्मी भी संलिप्त थे। खबर शहर के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुई, लेकिन खबरों में संबंधित पत्रकार का नाम नहीं लिखा गया। इसके चलते मीडिया कर्मी एक दूसरे से संबंधित मीडिया कर्मी के बारे में जानने को उत्सुक रहे। पूरे कुमाऊं में इस तरह की चर्चा रही कि आखिर मीडिया कर्मियों को ऐसा करने की क्या जरुरत आन पड़ी होगी। जब समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की श्रेणी में आने वाले लोगों पर ऐसे आरोप लगेंगे तो, इससे मीडिया के प्रति समाज में क्या संदेश जाएगा? क्योंकि इस तरह के कुकृत्य से लेकर दलाली तक के कार्य कुछ तथाकथित लोग मीडिया के आड़ में करते रहते हैं। ऐसे ही लोग अक्सर अपने को पत्रकार होने का दंभ भरते रहतेे हैं। हेकड़ी दिखाकर किसी को डराते हैं तो किसी से वसूली कर लेते हैं। इस तरह के चंद लोगों से मीडिया की साख पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है। ऐसे कथित मीडिया कर्मियों पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस-प्रशासन भी आगे नहीं आता है। क्योंकि, ऐसे कथित मीडियाकर्मी पुलिस व प्रशासन के अपने जैसे ही भ्रष्ट लोगों के साथ सांठगांठ किये रहते हैं, जिसके चलते मनमाफिक कार्य को अंजाम दिया जा सके।

Friday, April 22, 2011

पुस्तकों की दुनिया से विमुख होती युवा पीढ़ी



पुस्तकें ज्ञान का खजाना होती हैं, व्यक्ति की सच्ची दोस्त होती हैं। जीवन को परिवर्तित करने की क्षमता रखती हैं। बेहतर जीवन के साथ ही व्यक्तित्व विकास में सहायक होती हैं। ज्ञान, मनोरंजन व अनुभव से हमें दुनिया की सैर कराती हैं। विडंबना यह है कि वर्तमान में युवा पीढ़ी का रुझान पुस्तकों के अध्ययन के बजाय कहीं और ही हो गया है।
यूनेस्को ने 23 अप्रैल वर्ष 1995 में अध्ययन, प्रकाशन और कॉपीराइट को बढ़ावा देने के लिए वल्र्ड बुक एंड कॉपीराइट डे मनाने की शुरूआत की थी। इसके बाद वर्ष 2001 से भारत सरकार ने भी विश्व पुस्तक दिवस मनाना शुरू किया था। भारत में भी लोगों में पढऩे के लिए रुचि जगाने के लिए पुस्तक दिवस मनाना शुरू किया। लेकिन बाजारीकरण के इस दौर में खासकर युवा पीढ़ी में किताबों के प्रति रुचि अत्यंत कम हो गयी है। जिस तरह इंटरनेट, कार्टून, वीडियो गेम, टेलीविजन के प्रति युवा पीढ़ी का रुझान हद से ज्यादा बढ़ गया है, उससे तो बुद्धिजीवी वर्ग भी चिंतित होने लगा है। इसके लिए समाज में अध्ययन के प्रति रुचि बढ़ाने पर जोर दिया जाने लगा है। साहित्यकार अशोक पाण्डे का कहना है कि किताब पढऩा संस्कार है। पहले जिस तरह घर के बड़े सदस्य पुस्तकें पढऩे को प्रेरित करते थे, आज ऐसा नहीं दिख रहा है। देश में ही 200 से अधिक साहित्य की लघु पत्रिकाओं का निरंतर प्रकाशन हो रहा है। लोग इन पत्रिकाओं के बजाय बच्चों के लिए महंगे खिलौने खरीदना उचित समझते हैं। प्रसिद्ध भाषाविद् पद्मश्री प्रो.डीडी शर्मा का कहना है कि बच्चों में पढऩे के प्रति विशेष रुचि जगाने की आवश्यकता है। थॉट्स पुस्तक केन्द्र के पुस्तक विक्रेता भुवन भट्ट का कहना है कि युवा पीढ़ी में नाममात्र के ही बच्चे जासूसी, प्रेम पर आधारित उपन्यास खरीदने आते हैं। इससे लगता है कि निश्चित ही युवाओं में पढऩे का रुझान कम हुआ है। पुस्तक विक्रेता अरुण कुमार पाण्डे का कहना है कि कुछ ही बच्चे मोटिवेशन से संबंधित पुस्तकें खरीदते हैं। बाकी 30-35 वर्ष से अधिक उम्र के लोग ही साहित्यिक पुस्तकें खरीदते हैं।

Monday, February 28, 2011

बेमेल राजनीतिक गठबंधन के विरोधी थे विपिन दा


गणेश जोशी
पहाड़ के जल, जंगल व जमीन को किया संघर्ष
  
         वन बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, चांचरीधार आंदोलन हो या महंगाई के खिलाफ आवाज बुलंद करना हो, सभी में हमेशा आगे रहे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी विपिन चन्द्र त्रिपाठी यानि विपिन दा। जल, जंगल, जमीन के इस संघर्ष में उन्होंने भूख हड़ताल से लेकर आमरण अनशन किया और जेल में रहे। इस सब की परवाह किये बिना निरंतर संघर्षरत रहे। अब उनकी यादें और संघर्ष ही शेष रह गया है।
श्री त्रिपाठी का जन्म 23 फरवरी 1945 में द्वाराहाट के ग्राम दैरी में हुआ था। उनके पिता मथुरादत्त त्रिपाठी डाक विभाग में कार्य करते थे। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही ग्रहण की और माध्यमिक शिक्षा मुक्तेश्वर से पूरी हुई। इसके बाद आईटीआई व स्नातक परीक्षा के दौरान ही उनके ऊपर डा. राम मनोहर लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव के विचारों का प्रभाव पड़ा। सादा जीवन उच्च विचारों के साथ ही समाज की सेवा में जुट गये। वर्ष 1967 से आंदोलन में कूद गये। वर्ष 1972 में प्रजा सोसलिस्ट द्वारा चलाये गये भूमि आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय महंगाई के विरोध में आवाज बुलंद की। विपिन दा 1982 में ब्रांच फैक्ट्री के खिलाफ, 1988 में वन अधिनियम, 1989 में भूमि संरक्षण आंदोलन में सक्रिय रहे। आपातकाल के समय छह जुलाई 1975 को जेल गये। 22 महीने जेल में सजा काटने के बाद बाहर निकले तो जनता पार्टी की सरकार सत्ता हासिल करने जा रही थी। उन्होंने युवजन सभा से इस्तीफा मोरारजी देसाई को भेज दिया। चिपको आंदोलन, चांचरीधार आंदोलन में भी हमेशा आगे रहे। इतना नहीं विपिन दा सत्ता सुख से दूर रहे। बेमेल राजनीतिक गठबंधन के पक्षधर नहीं थे। इस तरह के गठबंधन को देश के लिए घातक बताते थे। वर्ष 1989 में द्वाराहाट के ब्लाक प्रमुख बने। इस दौरान उन्होंने द्वाराहाट इंजीनियरिंग कालेज, पॉलिटेक्नीक, राजकीय महाविद्यालय खोलने के अलावा अन्य विकास कार्य किये। इसके लिए भूख हड़ताल व आमरण अनशन तक किया। वर्ष 1984 में नशा नहीं रोजगार दो अंादोलन में 40 दिन तक जेल रहे। वर्ष 1980 से उत्तराखंड क्रांति दल से जुडऩे के बाद महासचिव से अध्यक्ष पद तक रहे। वर्ष 1992 में बागेश्वर में उन्होंने उत्तराखंड का ब्लू प्रिंट तैयार किया। इसे ही पार्टी ने घोषणा पत्र तैयार किया। श्री त्रिपाठी ने वर्ष 1974 में बारामंडल सीट से पहला चुनाव लड़ा इसमें 19 हजार वोट हासिल किये। पांच बार चुनाव लडऩे के बाद उत्तराखंड के प्रथम चुनाव में द्वाराहाट के विधायक बने। 30 अगस्त 2004 को उनका निधन हो गया। युवजन मशाल पाक्षिक मैगजीन निकालकर उन्होंने आंदोलनों की धार को तेज किया। उनके सपनों को पूरा करना आज भी राज्य के राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए चुनौती बना हुआ है।

Wednesday, February 23, 2011

खो गया इंसान

मंजिल का नहीं ज्ञान,
सस्कारो से अंजान,
चकाचौध में जीने को,
भटक रहा इन्सान.
परपीड़ा से विमुख,
संवेदना हुई क्षीण,
अनन्त की चाहत में,
छटपटा रहा इन्सान.
स्वयं को गया भूल,
चिंता नहीं चिता की,
आपाधापी की जिंदगी में,
खो गया इंसान.




Sunday, February 20, 2011

अस्तित्व को छटपटाती उत्तराखंड की बोलियां


    जिस तरह से राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बढ़ रहा है और बाजार पर वैश्वीकरण व पाश्चात्यीकरण का प्रभुत्व हो गया है, उससे उत्तराखंड की बोलियां भी अपने अस्तित्व को छटपटाने लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कहा है कि कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें लिपिबद्ध करने के लिए राज्य गठन के 10 वर्षों में भी सरकार ने ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी।
अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस को लेकर उत्तराखंड से जुड़े चंद लोग अपनी मातृ भाषा कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी को बचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स में माहौल बनाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में अभी तक इन बोलियों की कोई लिपि तक नहीं बन सकी है। स्थिति यह है कि यह बोलियां अपने अस्तित्व के लिए ही कसमसा रही हैं। चंद कवियों, लेखकों व ब्लागरों के जरिये इन बोलियों को सहेजने के साथ ही युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इसमें राज्य सरकार कोई विशेष पहल करती हुई नजर नहीं आ रही है। हालांकि उत्तराखंड में दर्जनों बोलियां हैं, जिनमें कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी प्रमुख हैं। इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया जा रहा है। इनमें से किसी भी बोली को लिपिबद्ध नहीं किया गया है। धाद संस्था इन बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। 25 वर्ष पूर्व स्थापित संस्था ने पत्रिका निकालकर कार्य शुरू किया था। दूर-दराज क्षेत्रों में गढ़वाली व कुमाऊंनी कवि सम्मेलनों का आयोजन किया, जो अब भी जारी है। धाद के समन्वयक तन्मय ममगईं बताते हैं कि इसके लिए समय-समय पर कवि सम्मेलन व भाषा पर विमर्श किया जा रहा है।
वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही कहते हैं कि क्षेत्रीयता को ध्यान में रखते हुए सरकार का दायित्व बन जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं को संरक्षित करने में योगदान दे। उत्तराखंड में थारुों, वनरावतों व भोटिया जनजातियों की बोलियां अस्तित्व में नहीं हैं तो इसके लिए भी दोषी राज्य सरकार है। संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के बजाय कुमाऊंनी व गढ़वाली को द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिये।  अनुवादक व कवि अशोक पाण्डे कहते हैं कि सबसे पहले कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के अलावा लोग भी उदासीन हैं। यही नहंी अपनी बोली को सार्वजनिक रूप में बोलने में लोग  शर्म महसूस करते हैं।
साहित्यकार दिनेश कर्नाटक कहते हैं कि मातृभाषा को शिक्षा के साथ जोड़ा जाना चाहिये। अगर बच्चों को स्कूल में इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा तो इनका भविष्य भी उज्ज्वल होगा।
कुमाऊंनी कवि जगदीश जोशी कहते हैं कि कुमाऊंनी ही नहीं हिन्दी पर ही संकट दिख रहा है। इसे संरक्षित करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
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वर्ष 2000 से मनाया जाता है यह दिवस
  भाषाई स्वीकृति के लिए पहला आंदोलन ढाका में बंगला भाषा के लिए हुआ था। लोग सड़कों पर उतर आये थे। इसमें कई प्रदर्शनकारी शहीद हो गये थे। इसको ध्यान में रखते हुए यूनेस्को महासभा ने नवंबर 1999 में विश्व की उन भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए वर्ष 2000 से प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाने का निश्चय किया गया।

Friday, February 18, 2011

सिनेमा की यर्थाथता के पक्षधर थे निर्मल


बैडिंट क्वीन के विक्रम मल्लाह से मिली प्रसिद्धि

         पर्वतीय संस्कृति के लिए चिंतित रहने वाले और हिन्दी सिनेमा में वास्तविकता के पक्षधर निर्मल पाण्डे उत्तराखंड के लिए गौरव थे। बॉलीवुड की रपटीली दुनिया में अपना मुकाम हासिल कर चुके थे। अपने अभिनय कला से दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने की कला में निपुण हो गये थे। लेकिन प्रतिभावान अभिनेता की दिलकश आवाज केवल 46 वर्ष में ही खामोश हो गयी। उनका अकस्मात् जाना हर किसी को स्तब्ध कर गया था। 18 फरवरी को उनकी पहली पुण्यतिथि होगी।
मध्यवर्गीय परिवार में मूल रूप से द्वाराहाट के पान गाँव के निर्मल पाण्डे का जन्म 11 अगस्त 1962 में बड़ा बाजार नैनीताल में हुआ था। बचपन से ही मेधावी और रंगमंच के शौकीन थे। प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय गौशाला और सीआरएसटी इंटर कालेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। डीएसबी से स्नातक व परास्नातक के साथ ही रंगमंच में अपनी प्रतिभा का हुनर दिखाने लगे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक करने के दौरान उन्होंने नाटकों व फिल्मों में भाग्य आजमाना शुरू कर दिया। फिल्मी दुनिया में बिना गॉडफादर के सफलता की सीढिय़ां चढ़ते हुए निर्मल पाण्डे की पहली फिल्म इडियट थी, लेकिन यह परदे पर असफल रही। निर्देशक शेखर कपूर की फिल्म बैडिंट क्वीन में विक्रम मल्लाह की भूमिका ने शानदार अभिनय के लिए वे सुर्खियों में आ गये। इसके बाद उन्होंने दो दर्जन से अधिक फिल्मों में नायक व खलनायक की दमदार भूमिका के जरिये फिल्मी जगत में हलचल मचा दी। निर्देशक अमोल पालेकर की फिल्म दायरा में अभिनेत्री की भूमिका में निर्मल पाण्डे को फ्रांस का प्रतिष्ठित एक्ट्रेस अवार्ड भी मिला था। इस फिल्म को टाइम मैगजीन ने भी 1997 में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया था। पिता हरीश चन्द्र पाण्डे और माता रेवा पाण्डे के छह बच्चों में वे तीसरे नंबर के थे। उन्हें प्यार से नानू भी कहा जाता था। भीमताल में 1984 में सरकारी नौकरी भी लगी लेकिन उनके अभिनय के जुनून ने उन्हें मुंबई पहुंचा दिया। उनकी व्यक्तिगत जिन्दगी में भी कई उतार-चढ़ाव आये। उनका पहला विवाह प्रसिद्ध अभिनेता आमिर खान की चचेरी बहन अग्$जी कौशल से हुआ था लेकिन यह बहुत दिन तक स्थिर नहीं रहा। इसके बाद 2005 में उन्होंने लखनऊ निवासी टीवी कलाकार अर्चना से शादी की, जिससे जुड़वा बच्चे हैं। उनके नाटक भी देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध हुये। इसमें जिन लाहौर नहीं देख्या व अंधायुग शामिल है। टीवी धारावाहिक हातिम में भी उनकी सशक्त भूमिका रही। उन्हें जज्बा एलबम के जरिए भी अच्छी प्रसिद्धि मिली।
निर्मल की कुछ प्रसिद्ध फिल्में
इस रात की सुबह नहीं
औजार
प्यार किया तो डरना क्या
 जहां तुम ले चलो
ट्रेन टू पाकिस्तान
शिकारी
गॉडमदर
वन टू का फोर
हम तुम पे मरते हैं
जीतेंगे हम
पगला
खफा
हद कर दी आपने

Tuesday, January 25, 2011

उत्तराखंड का लोक जीवन एवं लोक संस्कृति


पुस्तक समीक्षा

         अत्यंत खूबसूरत पहाड़ की पथरीली भूमि का संघर्ष पूर्ण जीवन भले ही अभावों से ग्रस्त था, लेकिन चिंता, तनाव, प्रतिस्पर्धा, भौतिक सुख-सुविधाओं की चकाचौंध से रहित था। कृषि व पशुपालन ही जीवन का आधार था। लोक जीवन के समस्त वैयक्तिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलाप भी इन्हीं पर आधारित थे। विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले भू-क्षेत्र उत्तराखंड के लोक जीवन का इतिहास 19 वीं शताब्दी से पहले के इतिहास से महरूम रहा है, लेकिन उत्तराखंड का लोकजीवन अब भी अभावों व सुविधाओं में घिस रहा है। इस लोकजीवन व लोकसंस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है भाषाविद व संस्कृत के विद्वान प्रो.डीडी शर्मा ने। उत्तराखंड का 'लोक जीवन एवं लोक संस्कृतिÓ नाम से प्रकाशित पुस्तक के प्रथम खंड में आठ अध्याय है। प्रथम अध्याय में उन्होंने उत्तराखंड लोक जीवन की पृष्ठभूमि का वर्णन किया है। दूसरे अध्याय में यहां के लोगों की आवास व्यवस्था किस तरह रही और गांवों के विकसित होने की प्रक्रिया को दर्शाया है। अध्याय तीन में प्रो. शर्मा ने आजीविका के स्रोतों का जिक्र किया है। पहाड़ का लोक जीवन अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किस तरह का था और चिंता मुक्त होकर अपने लिए आवश्यकतानुसार समस्त संसाधन भी जुटा लेता था।
चौथे अध्याय में कृषकीय लोक जीवन और इससे जुड़ी परंपराओं अनुष्ठानों का भी उल्लेख किया गया है। पांचवे अध्याय में पशुपालकीय एवं पशुचारकीय जीवन का वृतांत है। छठे अध्याय में कृषक-पशुचारक वर्गीय नारी का लोकजीवन और पर्वतीय नारी की बेहद कठिन जिंदगी का सार है। सातवें अध्याय में लोक वेषभूषा है तो आठवे अध्याय में नारी के आभूषणों का वर्णन है। नौवे अध्याय में लोकजीवन के भोज्यव्यंजन एवं पेय पदार्थ व 10 वें अध्याय में रीतिरिवाजों को दर्शाया गया है।
दूसरे खंड के आठ अध्यायों में भी लोक सांस्कृति की विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके साथ ही लोक संस्कृति का धार्मिक व सामाजिक महत्व भी समझाया गया है। इसके साथ ही लोक विश्वास आस्थाएं, अंधविश्वास की जानकारी भी दी गयी है। लेखक ने कुछ ऐसे कठिन शब्दों का इस्तेमाल किया है कि आम पाठक को समझाने में थोडा माथापच्ची करनी पड़ सकती है। फिर भी उत्तराखंड के विस्तृत लोकजीवन को समझाने के लिए भाषा का उपयोग सहज व सरल तरीके से किया गया है। इससे लगता है कि पुस्तक उनके लिए भी अनूठी साबित होगी जो पहाड़ की जिंदगी से लेकर देश-विदेश में पुन: मेहनत व लगन से नया आशियाना तलाश चुके है।
लेखक- प्रो. डीडी शर्मा
अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी पुष्ठ- 406
कीमत 700 रूपये निर्धारित है।

शोध को समर्पित व्यक्तित्व प्रो. डीडी शर्मा को पद्श्री अवार्ड


उत्तराखंड पर लिखे हैं 30 से अधिक शोध ग्रंथ
 भाषा के मर्मज्ञ और शोध गं्रथों के लिए विख्यात प्रो. डीडी शर्मा को उनके मेहनत व समर्पण का फल देर से ही सही, लेकिन मिला। पहाड़ों व हिमालयों के जीवन और उसके इतिहास खोजने में जुटे रहने वाले विद्वान प्रो. शर्मा ने अब तक 57 शोध ग्रंथों के प्रकाशन कर देश में अपनी अलग पहचान कायम की।
भीमताल में 24 अक्टूबर 1923 को जन्मे प्रो. शर्मा वर्तमान में आनंद धाम नवाबी रोड में रहते हैं। उन्होंने आगरा से एमए किया। एसएस विश्वविद्यालय वाराणसी से साहित्याचार्य किया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पीएचडी के अलावा डीलिट् की उपाधि भी उन्हें प्राप्त हुई। उन्होंने अध्ययन व शोध करते हुए संस्कृत के अलावा पाली, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, पारसियन, नेपाली, पंजाबी, डोगरी, उर्दू आदि भाषाओं का ज्ञान हासिल किया। उत्तराखंड से संबंधित 28 शोध ग्रंथ का हिन्दी भाषा में प्रकाशन करने का अनूठा कार्य किया है। इसके अलावा उत्तराखंड ज्ञानकोष नाम से ऐसा ग्रंथ तैयार कर रहे हैं, जिसमें राज्य की संपूर्ण जानकारी समाहित है। इसके अलावा उन्होंने 56 अनुसंधान ग्रंथों एवं 200 से अधिक अनुसंधान पत्रों का प्रकाशन किया है। इसके लिए उन्हें जवाहर लाल नेहरू फेलोशिप, यूजीसी अमरेटस फेलोशिप, इंदिरा गांधी मेमोरियल फेलोशिप भी प्राप्त हुई है। इसी महीने उन्हें जीवन भर के उत्कृष्ट कार्य के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल फाउंडेशन दिल्ली की ओर से 2010 के इंटरनेशनल अवार्ड भी प्राप्त हुआ है। प्रो. शर्मा उत्तराखंड के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें यह पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव हासिल हुआ।
पंजाब विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से 1989 में सेवानिवृत प्रोफेसर हिमालयी क्षेत्रों में पश्चिम से लद्दाख, लाहौर, स्पिति, किन्नौर आदि क्षेत्रों से लेकर पूर्व में नेपाल, सिक्किम व भूटान तक के क्षेत्रों की दर्जनों तिब्बत-बर्मी परिवार की भाषाओं व संस्कृतियों का सर्वेक्षण एवं अध्ययन किया है। प्रो. शर्मा राष्ट्रपति पुरस्कार से लेकर तमाम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। पद्श्रमी के लिए चुने गये प्रो. शर्मा ने बताया कि नि:स्वार्थ भाव से किये गये कार्य का परिणाम हमेशा सकारात्मक होता है। इसलिए हर व्यक्ति को बिना किसी फल की इच्छा के अपने कार्य में लगे रहना चाहिये।
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उत्तराखंड पर हिन्दी माध्यम से लिखित कुछ ग्रंथ :-
1- कुमाऊंनी में आर्येतरांश, उत्तराखंड विकास निधि, अल्मोड़ा।
2- हिमालयी संस्कृति के मूलाधार, इरा प्रकाशन, सोलन।
उत्तराखंड का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास- पांच खंड
3- परिचयखंड, उत्तरायण प्रकाशन, हल्द्वानी।
4- समीक्षा खंड, उत्तरायण प्रकाशन, हल्द्वानी।
5- संप्रदाय खंड, उत्तरायण प्रकाशन, हल्द्वानी।
6- समाजव्यवस्था खंड, उत्तरायण प्रकाशन, हल्द्वानी।
7- जातिव्यवस्था खंड, उत्तरायण प्रकाशन, हल्द्वानी।
8- हिमालय के खश, पहाड़ प्रकाशन, नैनीताल।
9- उत्तराखंड के लोक देवता, अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी
10- उत्तराखंड के लोकोत्सव एवं पर्वोत्सव, अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी।
11- उत्तराखंड का लोक जीवन, अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी।
12- उत्तराखंड की लोकसंस्कृति, अंकित प्रकाशन, हल्द्वानी।