Tuesday, March 20, 2012

साहित्य की खेमेबंदी और मीडिया की भाषा

साहित्य की खेमेबंदी और मीडिया की भाषा
::::प्रसंगवश::::
गीतकार इरशाद कामिल का इंडिया टुडे में प्रकाशित साक्षात्कार साहित्य जगत के बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करता है। साहित्यकारों की खेमेबंदी पर तंज कसता है। हिन्दी साहित्य के आम आदमी से दूर होने के सवाल पर भी साहित्यकारों को जिम्मेदार ठहराता है। साहित्य जगत के लिए ऐसी स्थिति अत्यंत खेदजनक है।
जब वी मेट, मौसम, मेरे ब्रदर की दुल्हन के गीतकार इरशाद ने कहा है कि हिन्दी के मठाधीश फिल्मी गीत लिखने वाले को लेखक ही नहीं मानते। निश्चित तौर पर इरशाद के तर्क में कहीं भी गलत नहीं नजर आता है। हिन्दी साहित्यकारों के लिए इस तरह की टिप्पणी शर्मनाक ही कही जाएगी।  इरशाद कहते हैं कि जो भाषा बड़े वर्ग को कम्यूनिकेट ही नहीं करती वह भाषा ही नहीं। इस साक्षात्कार को पढ़ते ही मुझे उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में 17 मार्च को मीडिया के समक्ष चुनौतियां विषय पर आयोजित संगोष्ठी में वक्ताओं के व्याख्यान याद आने लगे। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल से लेकर प्रख्यात साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही,  से लेकर तमाम लोग जहां मीडिया की वर्तमान भाषा को लेकर तंज कस रहे थे। मीडिया में अंग्रेजी शब्दों का प्रचलन हो या अन्य शब्दों के आने के साथ ही भाषा में सुधार पर जोर दे रहे थे। एक और वक्ता इंडिया टुडे के कार्यकारी संपादक दिलीप मंडल के व्याख्यान के बाद ही पूरा माहौल ही बदल गया। उन्होंने मीडिया पर आम लोगों के अटूट विश्वास से उत्पन्न संकट पर कई उदाहरण देकर मीडिया, साहित्य व शिक्षा क्षेत्र से जुड़े श्रोताओं को चौंका दिया। उन्होंने भाषा की सहजता व सरलता पर जोर देते हुए कहा कि इसी वजह से ही समाचार पत्र-पत्रिकाओं के पाठक लाखों में होते हैं। इसलिए मीडिया की भाषा पर बहस किया जाना जरूरी नहीं। वर्तमान में सूचना की संप्रेषणीयता इतनी तीव्र हो चुकी है कि भाषा का सरल व सहज होना स्वाभाविक ही है।
इस संगोष्ठी में इग्नू के पत्रकारिता विभाग के निदेशक डा. सुभाष धूलिया, वरिष्ठ पत्रकार सुनील साह, पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गोविन्द सिंह, वरिष्ठ पत्रकार त्रिनेत्र जोशी, दिवाकर भट्ट, आनंद बल्लभ उप्रेती, पवन सक्सेना, डा. सुबोध अग्निहोत्री समेत तमाम लोगों ने मीडिया के समक्ष चुनौतियों का जिक्र किया। अधिकांश वक्ताओं ने मीडिया की भाषा में सुधार पर जोर दिया।
दरअसल, हिन्दी भाषा को लेकर बहस बढ़ते ही जा रही है। एक ओर हिन्दी की शुद्धता, व्याकरण के साथ ही स्पष्टता पर जोर देने के लिए संगोष्ठियां, कार्यशालायें भी बढ़ती जा रही हैं। दूसरी ओर गांवों में पब्लिक स्कूल खुल गए हैं। इन स्कूलों में  अंग्रेजी पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है लेकिन इन स्कूलों बच्चे न ही पूरी तरह अंग्रेजी सीख पाते हैं और न ही हिन्दी। इस पर भी विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है।