Friday, December 30, 2011

नया साल: स्वयं से ही प्रेरित होता रहा


फिर 12 महीने बीत गये। पता ही नहीं चला। काम का बोझ लगातार बना रहा। साल भर व्यस्त रहा। मैंने 2010 के बीत जाने के बाद 2011 के लिए बहुत कुछ सोचा था। काफी उम्मीदें थी। महत्वाकांक्षा थी। कुछ पाने की हसरतें हिलोरें मार रही थी। हर पल को जीने को बेताब रहा। जिन्दगी को खूबसूरत बनाने के लिए हरसंभव प्रयासरत रहा।
इस सबमें मैंने स्वयं को सुंदर बनाने का प्रयास किया। मैंने सोचा कि अगर मैं बेहतर इंसान बन सकता हूं तो इसके लिए मुझे प्रयास करना चाहिये। जीवन में अपना व्यवहार ही अपना दर्पण होता है। इसलिए 12 महीने में अनवरत चलता रहा। जीवन में नया सीखने की ललक को बरकरार रखा।
जनवरी के जाड़े, मई, जून की भीषण गर्मी से लेकर अगस्त की तेज बारिश में भी मैंने उसी अंदाज से कार्य किया। जिस अंदाज में मुझे करना चाहिये। फिर भी कहीं न कहीं कोई कमी अवश्य रह गयी होगी। निश्चित तौर पर और बेहतर जिन्दगी जी सकता था, जीने के लिए उत्साहित था। स्वयं से ही प्रेरित हो रहा था।
मेरा कार्य दैनिक समाचार पत्र में छोटे से शहर की घटनाओं का संकलन कर उसे लिखना है। इसी घटनाओं के संकलन के जरिये मैं अपने उज्ज्वल भविष्य की नींव भी रखना चाहता हूं। उमड़ते-घुमड़ते विचारों को फेसबुक के जरिये भी सार्वजनिक करता रहा। जल्दबाजी में लिखे गये कुछ लेख अपने ब्लॉग में भी लिखते रहा। नई उम्मीद के साथ 2011 को अलविदा कहता हूं।
निश्चित तौर पर 2012 में नई उम्मीदों के साथ उमंग, स्फूर्ति व ऊर्जा का संचार होगा। जीवन के अनसुलझे पहलुओं को समझने के बजाय खूबसूरत जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी। सभी के प्रति प्यार व स्नेह बना रहेगा।

Thursday, December 29, 2011

वीरान सा लगने लगा गांव

वीरान सा लगने लगा गांव
गणेश जोशी
वाह! कितना खूबसूरत था मेरा गांव। 'एकता की ताकतÓ कहावत को चरितार्थ करता था। गोपेश्वर नदी से कुछ दूरी पर स्थित गांव सिमकूना जनपद मुख्यालय बागेश्वर से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित है। ग्रामीणों की देवी-देवताओं में पूरी आस्था थी। एक दूसरे पर अटूट विश्वास था। परोपकार की भावना कूट-कूट कर भरी थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय व अनुसूचित जाति के बीच भेदभाव तो था लेकिन आपसी रिश्ता इतना प्रेमपूर्वक था कि सभी लोग एक दूसरे के कार्य में सहयोग अवश्य करते थे। प्रत्येक के सुख-दु:ख में भागीदार रहते थे।
किसी घर में शादी हो या किसी की छत डालनी हो, सभी एकजुट होकर मनोयोग से हंसी-खुशी कार्य संपन्न कराते थे। इस आनंदमयी माहौल में एक दूसरे के प्रति लगाव व आत्मीयता साफ झलकती थी। कठिन से कठिन कार्य व भारी से भारी सामान उठाना हो तो सभी लोग इस कार्य को सहजता से संपन्न कराते थे। गांव की बेटी को शादी के समय विदा करना हो या किसी बीमार व्यक्ति को 15 किलोमीटर दूर अस्पताल में ले जाने के लिए लिए मुख्य सड़क तक पहुंचाना हो, ग्रामीण डोली में पहुंचा आते थे। एक व्यक्ति की पीड़ा सभी महसूस करते थे। किसी के घर में गाय या भैंस 'ब्याताÓ था तो आसपास घरों के सभी बच्चों को 'बिगौतÓ खाने के लिए बुलाया जाता था। ग्रामीणों के क्रियाकलाप कृषि व पशुपालन ही मुख्य था। करीब एक हजार परिवार की आबादी वाले गांव के अधिकांश लोग फौज में थे तो कुछेक शिक्षक। चार-पांच पीढ़ी तक के लोग एक ही बाखली में रहते थे। सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती थी। अभाव की तो अनुभूति ही नहीं होती थी। यद्यपि जीवन संघर्षपूर्ण एवं अभावों से ग्रस्त था। इसके बावजूद ग्रामीणों का जीवन चिंतामुक्त होता था। न अधिक सुखभोग की महत्वाकांक्षाएं होती थी और न ही उनको प्राप्त करने के लिए बेहताशा भागदौड़ भरी जिन्दगी थी। सभी लोग प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं से संतुष्ट थे। बहुत समय नहीं हुआ है, विकास की चकाचौंध ने, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ईष्र्या, द्वेष भाव इतना प्रबल हो गया है कि आज मेरा प्यारा सा गांव भी इसकी चपेट में है। संयुक्त परिवार गांव से ही टूटने लगे। भले ही मेरे गांव में बिजली है और घर तक सड़क भी पहुंच गयी है। पानी की व्यवस्था भी है। अधिकांश घरों में डीटीएच के माध्यम से टीवी चल रही है। अधिकांश ग्रामीणों के पास मोबाइल फोन की सुविधा भी उपलब्ध हो गयी है। नजदीक में सरकारी प्राथमिक विद्यालय है। फिर भी यह गांव पलायन की पीड़ा झेल रहा है। घरों में ताले लटके हैं और निरीह घर टूटने की कगार पर हैं। गांव में अब न पहले जैसी रौनक रही और न वैसी आत्मीयता। अब न तो किसी का मन खेती करने में लगता है और न ही पशुपालन में। शराब की बेतहाशा लत ने ग्रामीणों के अपने आपसी रिश्ते को तार-तार कर दिया। अब एक दूसरे पर विश्वास नहीं दिखता है। महत्वपूर्ण पर्व होली का इंतजार जहां पहले बाहर नौकरी करने वालों को बेसब्री से रहता था, वहीं अब गांव के लोगों में ही इसका क्रेज नहीं दिखता है। छह साल बाद गांव में होली के लिए घर गया तो रास्ते में ही आसपास गांव के युवकों ने मुझे लूटने का प्रयास किया। विकास के नाम पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक नहीं है। 15 किलोमीटर दूर गांव में स्वास्थ्य केन्द्र है, इसमें भी चिकित्सक शायद ही उपलब्ध रहता है। बाकी चिकित्सा सेवा झोलाछाप डाक्टरों के हवाले है। प्राइमरी से ऊपर तक की शिक्षा के लिए कई किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता है। स्वरोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है। कृषि व पशुपालन के लिए भी बेहतर व्यवस्था नहीं है। पूरी तरह मौसम पर आधारित खेती से ग्रामीणों के लिए तीन महीने तक राशन उपलब्ध नहीं हो पाता है। अंधाधुंध कटान से सूखे जंगलों के कारण पशुओं के लिए चारा तक नसीब नहीं हो रहा है। अज्ञानता, अशिक्षा के कारण नौजवान गलत दिशा की ओर भटकने को मजबूर है। राज्य सरकार व केन्द्र सरकार की हवाई व लोक लुभावन घोषणाओं की पोल खोलता गांव न जाने कब तक विकास की बाट जोहता रहेगा। गांव में सांसद वोट मांगने के अलावा कभी पहुंचे होंगे। यही हाल स्थानीय विधायक का भी है।

Friday, December 9, 2011

न जाने और क्या क्या...फिर

  
        एक सामान्य लड़का, बेटा, भाई, भतीजा, पत्रकार, जीवन के गूड रहस्यौ के बारे मे सोचने वाला, समाज के भाति-भाति चेहरो को पढ़ने की कोशिश करने वाला, चिंतन करने वाला, न जाने और क्या क्या...फिर भी..जीवन मे खालीपन...अधूरापन...सुकून की तलाश, शांति को भटकता मन, विचारो के अंतर्द्वंद से मुक्ति की छटपटाहट...आखिर क्या खोजते रहता होगा इंसान और किसलिए...  कब तक, कहा तक, किस मंजिल तक, चलते रहना है, दोड़ते रहना है, आखिर किस पड़ाव तक पहुचने के लिए, कभी हम इस तरह के विचारो को समझने की कोशिश करते है.
हम भी गज़ब के इंसान होते है, कई बार लगता है, जो हम कर रहे है, यह ठीक है या गलत। फिर सोचने लगते है, सही या गलत का निर्धारण करने वाले हम कोन हो सकते है। जिस प्रकृति की यह संरचना है, उसने हमे कुछ तो बताया नहीं। फिर भी हम वो करते है, जिसमे हम संतुष्ट होते है।  तब हम सारे नियमो को क्यू भूल जाते है। हमारे पास उस प्रश्न का जवाब नहीं होता है। नियम क्या है और इन्हे किसने बनाया, ज्यादा पचड़े मे पड़ने के बजाय, फिर हम आगे चलने लगते है, तुरंत विचार आता है, आज तो कर लेते है, बाकी कल देखेंगे। इसके बाद कल का कोई अर्थ नहीं रह जाता है, जब हम आज ही वह कर लेते है, जो हमे करना होता है। कभी-कभार हम येसी बहसो मे भी कूद जाते है, जिसके विपरीत हम काम कर रहे होते है। यह विषय बहुत बड़ा है, जितना सोचो उतना कम...।
फिर आपसे मिलते रहेगे...

Thursday, December 8, 2011

फायदे से अधिक नुकसान का भय

खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश

:::दृष्टिकोण:::
खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर देश में जिस तरह का बवंडर मचा है, इससे राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि आम व्यापारी वर्ग भी परेशान नजर आ रहा है। फायदे से अधिक इसके नुकसान का भय बना हुआ है। वालमॉर्ट जैसी कंपनियां अगर भारतीय बाजार पर कब्जा कर लेंगी तो आम व्यापारियों का क्या होगा? जल्दबाजी में अगर इस पर किसी तरह का निर्णय या राय देना उचित नहीं होगा। फिर भी विपक्षी दलों के घोर विरोध के बाद केन्द्र सरकार ने मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। हालांकि इस पर आम राय बनाने की दलील भी दी जा रही है। अब देखना है कि केन्द्र सरकार का जल्दबाजी में लिया गया निर्णय, कितना सही या कितना गलत होता है।
खुदरा बाजार में केवल 30 प्रतिशत ही सामान छोटे उद्योगों से खरीदा जाना और 70 प्रतिशत बड़े उद्योगों से खरीदने का औचित्य भी नहीं समझ में आता है। अगर पूरी सामग्री विदेशों से ही आएगी। विदेशों की घटिया सामग्री का उपयोग भारतीय करेंगे तो इसके दूरगामी परिणाम घातक ही होंगे। विपक्षी दलों का विरोध करना जायज लग रहा है लेकिन इस योजना के महत्वपूर्ण व लाभकारी मुद्दे गौण हो गये। अगर गंभीरता से विचार किया जाय तो लाभ नहीं के बराबर और घाटा अधिक नजर आ रहा है।
केन्द्र सरकार के इस निर्णय से कई सवाल भी खड़े हो रहे थे। अगर वालमार्ट जैसी विदेशी कंपनियां 49 प्रतिशत में ही निवेश को तैयार थी तो क्यों 51 प्रतिशत तक की अनुमति दी गयी। यह भी सर्वविदित है कि अमेरिका में रिटेल कारोबार में वालमार्ट का वर्चस्व है। इस तरह की कंपनियों का रिकार्ड रोजगार देने के मामले में भी ठीक नहीं है। अगर हमारी सरकार रोजगार के नाम पर ठेकेदार के अधीन भारत के अधिकांश लोगों को रोजगार देने की बात करती है तो इस निर्णय को हमेशा के लिए ही ठंडे बस्ते में डाल देना उचित होगा।