Wednesday, October 16, 2013

रावण का पुतला जला पर बुराईयां नहीं


 असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं।


आज समाज में जिधर भी नजर दौड़ाएं, बुराईयां ही बुराईयां दिख रही हैं। आम से खास हर कोई किसी न किसी 'रावणÓ से परेशान है। कलयुग का यह रावण सबसे अधिक मानवता के नैतिक पतन के रूप में उभरा है, जिसके चलते भ्रष्टाचार, नशाखोरी, मिलावटखोरी, गैर बराबरी, अशिक्षा, अज्ञानता जैसी तमाम समस्याएं मुंह बाएं सुरसा की तरह खड़ी हो गई हैं। समाज में तेजी से पनपते रावण और इसके लिए समाधान को लेकर चर्चाएं भी हो रही हैं। गोष्ठियां हो रही हैं। संत-महात्मा से लेकर नेता तक बड़े-बड़े मंचों से उपदेश दिए जा रहे हैं। बाकायदा सेमिनारों का आयोजन हो रहा है। इसके लिए विजयदशमी का सबसे बड़ा उत्सव मनाया जाता है। इस दिन बड़े से बड़े रावण के पुतले जलाने की होड़ सी मच जाती है। जमकर आतिशबाजी होती है। इस पुतले जलने से ही बुराईयों का अंत मान लिया जाता है। असत्य पर सत्य की जीत मान ली जाती है। लोग इसे त्योहार के रूप में भी मना लेते हैं फिर भी समाज में गहरी पैठ चुकी बुराइयां तो कहीं कम होती नहीं दिख रही हैं। ऐसा आखिर क्यों हो रहा है? हर साल रावण के रूप में हम बुराई के अंत का ढींढोरा पीटते हैं लेकिन अपने भीतर की गंदगी को झांकते तक नहीं हैं। राग, द्वेष, छल, कपट, दुष्कर्म, फरेब, ठगी, लालच जैसे कुकर्म व्यक्ति को छोड़ ही नहीं पाते हैं। शायद व्यक्ति ही इनसे निवृत ही नहीं होना चाहता है। शायद हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शों को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं।

Wednesday, October 2, 2013

मैं बूढ़ा हूं पर यह मेरी मजबूरी है

चेहरे पर झुर्रिया पड़ गई हैं। पांव कंपकंपाते हैं। याद कुछ नहीं रहता है। अब पैसा भी नहीं बचा। नौकरी करने की अब सामथ्र्य नहीं रही। ऐसी स्थिति के लिए मेरी कोई गलती नहीं है। यह तो प्रकृति का नियम है। उम्र के आखिरी पड़ाव तक जीवित रहने वाले हर शख्स का यही हश्र होना है लेकिन इसके बाद भी उपेक्षा। यह समझ से परे है। अब न तो अपनी ही औलाद मुंह लगाती है और न ही सरकार की कोई योजना का लाभ मिलता। गैर सरकारी संगठन भी मेरे नाम से लाखों रुपये हड़प लेते हैं, लेकिन मेरी इस दयनीय दशा को देखकर किसी को तरस नहीं आता है। मैं अब बूढ़ा हो गया हूं लेकिन यह मेरी मजबूरी है, लेकिन जिंदगी का सच भी यही है।
इस सच से मुंह मोडऩे वाले मेरे बच्चों को अब कुछ याद नहीं रहा। जब मैंने उनको अंगुली पकड़कर चलना सिखाया। उसके हर सवाल का जवाब दिया। उसके लिए न दिन देखा और न रात। जिंदगी के आखिरी पड़ाव में पहुंचते ही अपने व्यवसायिक उत्तराधिकार भी उसे सौंप दिया। जब मेरा पास कुछ बचा तो मैं उनके लिए ही अनुपयोगी हो गया। अपेक्षा, तिरस्कार और व्यंगवाणों से मानसिक, भावनात्मक व शारीरिक रूप से उपेक्षित होने लगा हूं। परिजन, मित्रजन सभी को अपना समझता था। उनके साथ समय व्यतीत करता था लेकिन अब मेरी शाख नहीं रही। एकाकीपन कचोटता है। अनेक प्रकार की आशंकाएं ने जीवन को असुरक्षित व भयावह स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। कभी-कभी सोचता हूं कि भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों का सम्मान करने की प्रवृति थी। यह सीख हम सभी को दिया करते थे। पर, पाश्चात्यीकरण का प्रभाव हो या शहरीकरण की चाह, बूढ़े मां-बाप की सेवा तो दूर देखना भी नई पीढ़ी को गंवारा तक नहीं। जिंदगी के आखिरी पड़ाव में इतनी अशांति पता नहीं कहां ले जाएगी। जबकि सरकार ने मेरे लिए माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम 2007 लागू किया है। उत्तराखंड सरकार ने भी 2011 में इसे लागू कर दिया था। यह कानून भी महज औपचारिक भर रह गया। एक अनुमान के मुताबिक देश में ही इस समय 7.50 करोड़ वरिष्ठ नागरिक हैं। इनकी संख्या वर्ष 2025 तक 11.07 करोड़ होने की संभावना है। इतनी बड़ी तादाद में आज भी मेरी बिरादरी के हजारों लोग निराशा, हताशा, अशांत, तनावग्रस्त, बीमार जीवन जीते हुए अंतिम सांस गिनने को मजबूर हैं। हर शहर, गली, मोहल्ले व गांव तक मैं मुझ जैसे वृद्ध भटकते दिख जाएंगे।
दीवार क्या गिरी मेरे खस्ता मकान की।
लोगों ने मेरे सहन में रस्ते बना लिए।।

Monday, September 30, 2013

शिक्षा की बेहतरी के लिए नेताओं से खोखली उम्मीद



उत्तराखंड में सबसे अधिक कर्मचारियों वाले शिक्षा विभाग की ऐसी दयनीय स्थिति शायद पहले कभी नहीं देखी गई होगी। हां, यह जरूर था कि कहीं पर मानकों से ज्यादा शिक्षक कार्यरत रहे तो कहीं पर अधिक विद्यार्थी होने के बाद भी शिक्षक नहीं। इस समय धार्मिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी की कथित सख्त रवैये से ऐसा लग रहा था कि 13 जनपदों के सभी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में छात्र व शिक्षक का अनुपात दुरूस्त हो जाएगा, लेकिन यहां तो बिल्कुल उल्टा हो गया।  पहले से ही उपेक्षित पहाड़ के विद्यालयों में शिक्षक भेजे जाने लगे, वह वहां जाने को तैयार नहीं। जिन विद्यालयों से उन्हें भेजा गया, वहां के विद्यालय शिक्षकविहीन हो गए। देश के भविष्य का निर्माण करने वाले सरस्वती के इन मंदिरों की दुर्दशा का भान शायद जमीनी स्तर से बहुत ऊपर से देखने की कोशिश कर रहे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को नहीं हो रहा होगा। अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षा अधिकारियों का हाल तो और भी बुरा है। स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं, तो यह नहीं पूछते कि पढ़ाई का क्या हाल है? सिर्फ एक सवाल उनके जुबान पर रहता है कि इस योजना का कितना बजट कहां खर्च हुआ? इस सवाल से उन्हें व्यक्तिगत लाभ तो होता ही है, बाकी जिम्मेदारियों से भी इतिश्री मान लेते हैं। इस समय कुमाऊं के अधिकांश विद्यालयों के बच्चों को शिक्षकों के लिए नेताओं की तरह सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने को बाध्य होना पड़ रहा है। छमाही परीक्षा सिर पर हैं। ऐसे हालातों में हम अपने बच्चों को कहां ले जा रहे हैं? एक करोड़ 86 लाख की आबादी वाले खूबसूरत राज्य के सपनों पर पलीता लगा रहे नेताओं को आखिर शिक्षा जैसे अहम मुददे को लेकर कब अक्ल आएगी? विषम भौगोलिक परिस्थिति वालेे इस छोटे में राज्य में राजनीतिक विषमता के इस दौर में भ्रष्ट, लाचार, असहाय और बेचारे नेताओं से किसी तरह की उम्मीद करना भी बेइमानी सा प्रतीत होने लगा है।

Friday, September 13, 2013

मोदी के हवाई उल्लास में भारत की चुनौती


अहा, आज का दिन मानो कितना खुशी का है। बहुत अच्छा लग रहा होगा, उन भाजपा के कार्यकर्ताओं को, जो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पीएम बनते हुए देखना चाहते हैं। कई कार्यकर्ता इतने जश्न में डूब गए हैं कि मानो मोदी आज ही पीएम बन गए हों। उन्हें पता नहीं इतनी जल्दी भी ठीक नहीं। फिर भी अच्छी बात है, लेकिन यह उनका अंदर का मामला है।
 हमें तो भाई विकास चाहिए। भ्रष्टाचार मिटाना है। युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने हैं। विदेश नीति को दुरुस्त करना है। कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए पोषण उपलब्ध कराना है। दो वक्त की रोटी से वंचित लोगों को रोटी उपलब्ध कराना है। महंगाई पर लगाम कसना होगा। देश की आंतरिक व वाहय सुरक्षा को मजबूत करना होगा। नशे की तरफ बढ़ती युवाओं की प्रवृति रोकनी होगी। आज भी दुर्गम क्षेत्रों में महिलाएं हाड़तोड़ मेहनत करने को मजबूर हैं। गुणवत्तायुक्त शिक्षा से वंचित हैं। इनके लिए बनाई गई योजनाओं के क्रियान्वयन की आवश्यकता है। साथ ही सरकारी व निजी शिक्षा के बढ़ते अंतर को पाटना होगा। गरीब व अमीर के बीच गहरी होते जा रही खाई को पाटने के लिए नए तरीके से सोचना होगा। बाबुओं और अधिकारियों की काम न करने की नकारात्मक प्रवृति को सकारात्मकता में बदलना होगा। देश को जातिवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, नक्सलवाद, माओवाद से निपटना होगा। कर्ज के बोझ को कम करना होगा। आर्थिक विकास दर बढ़ाना होगा। मोदी के लिए हवाई वाह-वाह करने के बजाय, हकीकत से रू-ब-रू होना होगा। भावी प्रधानमंत्री के सामने चुनौतियां कम नहीं है। अगर कोई भी दल अगर प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार घोषित कर रहा हो, उसे पहले देश की वास्तविक नब्ज टटोलनी होगी।

Tuesday, September 10, 2013

स्वयं के यश में मस्त 'आपदा' के विजय




 भगवान केदारनाथ की की पूजा भी जरूरी है। अवश्य होनी चाहिए। जीवन में इसका भी विशेष महत्व है। लेकिन जब देवभूमि में पूजा को लेकर सत्तालोलुप नेताओं को बयानबाजी करने में जो आनंद आ रहा है। यह आनंद भीषण आपदा से प्रभावित लोगों के आंसू पोछने में आता तो निश्चित तौर पर राज्य का विकास होता। आलम यह है कि पिथौरागढ़ से लेकर बागेश्वर व उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग, टिहरी क्षेत्रों में लोग आज भी भूखे सोने का विवश हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए तरस रहे हैं। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को केवल अपना यशोगान से मतलब है, इससे अधिक कुछ नहीं...। अगर वास्तव में विकास के लिए गंभीरता से सोचा जाता, अधिकारियों को पारदर्शिता से कार्य करने के लिए सख्त निर्देश दिए गए होते तो आपदा के तीन महीने के बाद भी लोग तरसने को मजबूर नहीं होते। विडंबना ही है कि इन प्रभावित क्षेत्रों में आज किसी की तबियत खराब हो जाए तो उसे दवा देने के लिए एक अदद डाक्टर तक नहीं है। पहले की तरह ही कमीशनखोरी के लिए बनाए गए अस्पताल के भवन भी मुंह चिढ़ा रहे हैं। बाकायदा क्षेत्र में विधायक हैं, नाम के लिए सांसद साहब भी हैं। पर हकीकत में देखें तो हालात बेहद नाजुक हैं। इन जनपदों के प्रभावित क्षेत्रों में लोग बेरोजगार हो गए हैं। आपदा ने उनसे घर छीन लिया, मवेशियों को छीन लिया और पैदल चलने तक के रास्ते भी नहीं छोड़े। पलायन करने को मजबूर प्रभावित लेागों की सुध लेने के बजाय उत्तराखंड की सरकार बेबस व हताश नजर आ रही है। करोड़ों-अरबों रूपये तो मिल ही गए हैं। इस धन का सदुपयोग करने के लिए छोटी-बड़ी तमाम योजनाएं बनाई जा रही हैं, जबकि पहले से ही कई योजनाएं हैं। इन योजनाअेां का क्रियान्वयन के बजाय इस धन के बंदरबांट पर ही अधिक ध्यान दिख रहा है। विपक्षी दल भाजपा ने पूछा कि सरकार श्वेत पत्र जारी करे। आपदा के बजट का हिसाब दे तो कांग्रेस भी कम नहीं, वह भला क्यों हिसाब देती? उसने भी जवाब दिया कि पहले भाजपा 2010 की आपदा का हिसाब दे। फिर कांव-कांव करने वाले विपक्षी दल के नेताओं ने भी चुप्पी साध ली। केवल जनता को बेवकूफ बनाओ और रोटी सेंको।

Sunday, September 8, 2013

खूबसरत शहर के चेहरे पर अतिक्रमण का दाग





   लालच, रसूख, हवस, दबंगई और राजनीतिक अतिक्रमण की चपेट से शहर को मुक्त करने के लिए इस जनपद के जिलाधिकारी रहे सूर्य प्रताप सिंह जैसे हिम्मती अधिकारियों को एक बार फिर तैनात किए जाने की आवश्यकता है, जिससे की शहर के सौन्दर्य को पुनर्जीवित किया जा सके। नया स्वरूप दिया जा सके।

 

गणेश जोशी
    कुमाऊ के प्रवेश द्वार स्थित व्यापारिक, राजनीतिक व शैक्षणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण शहर हल्द्वानी के चेहरे पर अतिक्रमण का दाग गहरा हो चुका है। अतिक्रमण की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। अतिक्रमणकारी बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुके हैं। इन्होंने शमशान घाट तक को अतिक्रमण की चपेट में लेना शुरू कर दिया है। राष्ट्रीय राजमार्ग में तीन से पांच फुट तक की सड़क पर कब्जा कर लिया है। मुख्य बाजार में नालियों के ऊपर पक्का निर्माण कर डाला। अधिकांश आवागमन वाली गलियों को दुकानें में तब्दील कर लिया गया है। वाहियातपना देखिए, पेशाब घर तक बेच डाला। जब दुकानों को आधी सड़क तक पहुंचा दिया जाता है तो भी अति लालची लोगों की हवस शांत नहीं हो पाती है। चंद पैसों के लालच में दुकानों के ठीक आगे ठेला लगवा दिया जाता है। अपनी दुकान के आगे की सड़क के स्वयंभू मालिक बनकर शेष आवागमन के स्थान पर अपना वाहन खड़ा दिया जाता है। इन अतिक्रमणकारियों को न ही बिक चुकी पुलिस का डर है और न ही पीछे से जेब गर्म करने वाले नगर निगम व प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों का। कथित तौर पर विकास का नारा देने वाले सत्तालोलुप व वोटों के लालची जनप्रतिनिधियों को तो ये अतिक्रमणारी आंखें दिखाने लगते है। यहां तक कि जिस विभाग को अतिक्रमण पर निगरानी की जिम्मेदारी है, उसी ने अपनी दुकानें भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ाई हैं। इससे खूबसूरत पहाड़ों की तलहटी पर बसे शानदार शहर की शान में बदसूरती का गहरा दाग लगा हुआ है। अनियोजित विकास के साथ अबाध गति से बढ़ती आबादी भी अतिक्रमण के दाग को साफ करने के बजाय और गहरा कर रही है। लालच, रसूख, हवस, दबंगई और राजनीतिक अतिक्रमण की चपेट से शहर को मुक्त करने के लिए इस जनपद के जिलाधिकारी रहे सूर्य प्रताप सिंह जैसे हिम्मती अधिकारियों को एक बार फिर तैनात किए जाने की आवश्यकता है, जिससे की शहर के सौन्दर्य को पुनर्जीवित किया जा सके। नया स्वरूप दिया जा सके। उच्चकों से बचते हुए महिलाएं, बच्चे भी स्वच्छंद होकर बाजार भ्रमण का आनंद ले सकें। उस कार्रवाई के समय की तरह कथित रूप से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ाए जा सकें। कुछ दिन पहले सिटी मजिस्टेªट व मुख्य नगर अधिकारी आरडी पालीवाल ने बाजार में अतिक्रमण हटाने की अनूठी और हिम्मतभरी पहल तो की थी, लेकिन कार्रवाई एक दिन के बाद फिर नोटिस पर आकर थमने लगी है। जबकि बाहरी तौर पर उन्हें समर्थन तो मिलने लग गया था। व्यापारिक संगठनों के कुछ अतिक्रमणकारी सदस्य भी अपने आकाओं की उम्मीदों पर दुम दबाए बैठ गए थे। खैर, हम लोग तो सकारात्मकता, निष्पक्षता और ईमानदारी से अतिक्रमणकारियों से शहर को मुक्त करने की उम्मीद करते हैं, जिससे कि शहर की शान में चार चांद लग सकें। अभियान जारी रहेगा..., पांच सितंबर को दैनिक जागरण, हल्द्वानी की ओर से पाठक पैनल में अतिक्रमण की समस्या, समाधान और चुनौतियां विषय पर आयोजित चर्चा में शहर के कुछ व्यापारी और कुछ सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग शामिल हुए। सीओ सिटी लोकजीत सिंह भी उपस्थित थे। जब बहस आरंभ हुई तो इस तरह के कई चौंकाने वाली जानकारियों से रू-ब-रू हुए। यूनिट हेड अशोक त्रिपाठी की अध्यक्षता में बहस का संचालन उप संपादक गणेश जोशी ने किया।

Sunday, July 21, 2013

महज अंक बढ़ाने को आपदा का प्रबंधन



  अगर हकीकत में प्रशिक्षण आपदा प्रबंधन के लिए होता तो राज्य में आई भीषण आपदा के प्रबंधन में नाम मात्र का सहयोग तो अवश्य होता। उत्तराखंड में बादल फटने से बेहिसाब बारिश, कहर बरपाने वाले भूस्खलन के बाद जैसे आपदा कुप्रबंधन की पीड़ा पूरे देश ने झेली, इस पर मरहम तो लग सकता था।
गणेश जोशी

   उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएं भूस्खलन, बादल फटना, बाढ़ आना, भूकंप आना सामान्य प्रक्रिया है। अक्सर इन आपदाओं से राज्यवासियों को जूझना पड़ता है। इससे जहां हजारों मौतें हो जाती हैं। मकान ध्वस्त हो जाते हैं। खेत बह जाते हैं। सड़क मार्गों का संपर्क टूट जाता है। इसके बावजूद विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले राज्य में आपदा प्रबंधन केवल कागजों तक सीमित है। जबकि आपदा प्रबंधन के नाम पर समय-समय पर कार्यशालाएं होती हैं। सम्मेलनों में आपदा प्रबंधन के बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। यहां तक मॉक ड्रिल का दिखावा होता है। बाकायदा शिक्षण संस्थानों में लाखों रुपए खर्च कर प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां तक आपदा प्रबंधन विभाग ने भी जिला स्तर पर प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। जब हकीकत में उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा ने अपना असली रूप दिखाया तो सारा सिस्टम ध्वस्त हो जाता है। सरकार असहाय हो गई। सामाजिक संगठन लुप्त हो गए। राज्य के 7000 से अधिक राष्ट्रीय सेवा योजना के स्वयं सेवक कहीं नहीं दिखे। करीब 10 हजार राष्ट्रीय कैडेट कोर, आठ हजार रोवर रेंजर्स और पांच हजार स्काउट गाइड के कथित प्रशिक्षित सदस्य नजर नहीं आए। इन्हें दिया जाना वाला प्रशिक्षण केवल औपचारिकता भर रह गया। राज्य में इतनी संख्या में पढ़ाई कर रहे नौजवानों को जब आपदा का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, तब प्रशिक्षण देने वाला और प्राप्त करने वाले के मन में केवल माक्र्स बढ़ाने के टूल के रूप में इसे इस्तेमाल किया गया होगा। अगर हकीकत में प्रशिक्षण आपदा प्रबंधन के लिए होता तो राज्य में आई भीषण आपदा के प्रबंधन में नाम मात्र का सहयोग तो अवश्य होता। उत्तराखंड में बादल फटने से बेहिसाब बारिश, कहर बरपाने वाले भूस्खलन के बाद जैसे आपदा कुप्रबंधन की पीड़ा पूरे देश ने झेली, इस पर मरहम तो लग सकता था। पर, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। इस विभीषिका के बाद विद्यालयों में माक्र्स बढ़ाने के टूल्स के रूप में उपयोग होने वाले आपदा प्रबंधन के प्रशिक्षण पर ही सवाल उठने लगे।
राष्ट्रीय सेवा योजना के राज्य संपर्क अधिकारी डा. आनंद सिंह उनियाल कहते हैं कि चारधाम यात्रा मार्ग वाले जनपदों के छह-छह स्वयंसेवक और कुमाऊं के छह जनपदों के तीन-तीन स्वयंसेवकों को आपदा प्रबंधन का विशेष प्रशिक्षण दिया गया। इसमें आपदा से पहले, आपदा के समय और बाद में किस तरह का प्रबंधन करना है, इसका प्रशिक्षण दिया गया। लेकिन, भयंकर आपदा के समय हमारे स्वयंसेवक कुछ नहीं कर सके। डा. उनियाल सवाल उठाते हैं कि संसाधन नहीं मुहैया कराए जाते हैं। ऐसी स्थिति में एनएसएस के स्वयंसेवक आपदा राहत के लिए कैसे जा सकते हैं? हम हैंडीकैप्ड की तरह हो गए। कहते हैं कि आपदा प्रबंधन को अनिवार्य रूप से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। युवा कॅरियर बना सके। इसमें डिजास्टर इंजीनिरिंग की पढ़ाई होनी चाहिए। राजकीय महिला महाविद्यालय के प्राचार्य डा. गंगा सिंह बिष्ट कहते हैं कि औपचारिक पढ़ाई से आपदा प्रबंधन का कोई तर्क नहीं है। वास्तव में युवा तभी आपदा प्रबंधन के लिए तैयार होंगे, जब उन्हें अनिवार्य रूप से इसके लिए तैयार किया जा सके।
स्काउट गाइड के जिला सचिव राजीव शर्मा कहते हैं कि अगर इतने युवाओं को प्रशिक्षण की खानापूर्ति नहीं की होती तो हम आपदा राहत से निपटने के लिए तैयार होते। अक्सर देखा गया है कि आपदा से ज्यादा आपदा कुप्रबंधन से मौतें होती हैं। पर्यावरण शिक्षा के साथ इस विषय को अनिवार्य कर देना चाहिए।
सेंट लॉरेंस की प्रधानाचार्य अनीता जोशी कहती हैं कि इस समय हम लोग किताबी ज्ञान पर अधिक ध्यान दे रहे हैं, जबकि जरुरत है आपदा प्रबंधन जैसे विषयों को गहराई से पढ़ाने की, जिससे भविष्य में युवक स्वयं की रक्षा के साथ ही दूसरों की जान बचाने के लिए भी आगे आ सके। एमबी पीजी कालेज का रोवर कुमार हर्षित भी संयोग से 15 जून को विभिन्न प्रांतों के भारत स्काउट एवं गाइड्स के 70 रोवर रेंजर्स के साथ 10 दिवसीय ट्रेकिंग व पर्यावरण अध्ययन के लिए जोशीमठ में थे। अगले दिन 16 जून को गोविंदघाट केलिए चले। हर्षित बताते हैं कि रात में अलकनन्दा का स्तर लगातार बढऩे लगा। जो तीर्थयात्री और हमारे साथी पहली बार उस मंजर को देख रहे थे, वे घबरा गये। चारों ओर चीख पुकार मच गयी। सबसे बड़ी बात यह है कि हम लोगों ने हिम्मत तो रखी लेकिन हमारे पास संसाधन नहीं थे। हम दूसरों को भी बचाना चाहते थे। कहते हैं, आपदा प्रबंधन लिए वर्तमान में जितना सिखाया जा रहा, यह कम है। बीटेक का छात्र रवि उपाध्याय कहते हैं कि दुनिया के कई देशों में नागरिकों को हर परिस्थिति के लिए तैयार किया जाता है लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं है। सीए कर रहे सौरभ जोशी कहते हैं कि स्कूली शिक्षा से ही आपदा प्रबंधन पढ़ाया जाना चाहिए। हम केवल प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, इसे बचाने और इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए ठोस उपाय नहीं है।

Friday, July 19, 2013

हवा से देख रहे हैं पांवों के छाले


यह रास्ता कई जगह इतना खराब है कि एक ही व्यक्ति उस रास्ते पर चल सकता है। उबड़-खाबड़ व कंटीली राह से लोगों का जीवन बेहद मुश्किलभरा हो गया है। हांफते-हांफते लोगों की जान हथेली पर आ गई है।            




गणेश जोशी

        सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियां, लड़खड़ाते कदम। पीठ में सिलेंडर लिए महिलाएं व युवक। कंधे पर सब्जी की भारी पेटियां व बोरे लादे हुए। विकलांगों के डगमगाते कदम। बच्चों को संभालने का प्रयास करते परिजन। पसीने से तर-बतर हांफते-हांफते 10 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई व ढलान का सफर तय करने की मजबूरी ने आपदा पीडि़तों के पांवों व कंधों में घाव कर दिए हैं। यह विषम परिस्थिति है बलुवाकोट से धारचूला जाने वाले एकमात्र मार्ग की। यह मार्ग 16 जून की आपदा से तबाह हो गया। जीने की विवशता ने रोजमर्रा की आवश्यकता के लिए हजारों लोगों को ऐसा दर्द दे गया।
काली नदी के प्रचंड वेग से बचाकर चट्टान के बीच नौ किलोमीटर की यह सड़क अब कब तक बनेगी? इसकी तो जल्द उम्मीद नहीं है लेकिन हवाई यात्रा करने वाले जनप्रतिनिधि व नौकरशाहों को पीडि़तों के पांवों के छालों का दर्द महसूस होता नहीं दिख रहा है। चढ़ाई चढ़ते हुए जब आसमान में हेलीकाप्टर उड़ता दिखता है तो लोग सोचते है, काश! अधिकारियों व अपनों के लिए तो यह घूम रहा है। रोजमर्रा का कुछ सामान तो इससे छोड़ दिया जाता तो प्रकृति की विनाशलीला की त्रासदी झेलने के बाद भी व्यवस्था का ऐसा क्रूर दंश हम झेलने को विवश नहीं होते। यहां पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, केन्द्रीय मंत्री डा. हरीश रावत के लोकलुभावन घोषणाओं का क्रियान्वयन जमीनी स्तर पर होता नहीं दिख रहा है। हालात यह हैं कि धारचूला ब्लाक के 36 गांवों को जोडऩे वाला एकमात्र मार्ग पिथौरागढ़ से होकर बलुवाकोट होते हुए धारचूला जाता है। बलुवाकोट से निगापानी केवल पांच किलोमीटर की दूरी पर है। यह मार्ग 16 जून को काली नदी के तेज प्रवाह के चलते तीन स्थानों पर पूरी तरह बह गया है। यहां तक दर्जनों भवनों व खेतों को अपने आगोश में ले गया। बलुवाकोट से दो कदम आगे घोचा से कालिका गांव तक डेढ़ किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई है, फिर कालिका से दो किलोमीटर पैदल मार्ग के बाद तीन किलोमीटर की चढ़ाई व ढलान है। इसके बाद गोठी से एक किलोमीटर से अधिक सड़क पर पैदल चलते हुए तीन किलोमीटर की बेहद कठिन रास्ते की चढ़ाई फिर ढलान के बाद निगालपानी पहुंचना पड़ रहा है। यह रास्ता कई जगह इतना खराब है कि एक ही व्यक्ति उस रास्ते पर चल सकता है। उबड़-खाबड़ व कंटीली राह से लोगों का जीवन बेहद मुश्किलभरा हो गया है। हांफते-हांफते लोगों की जान हथेली पर आ गई है। जीआईसी धारचूला में रहने वाले सोबला गांव के पीडि़त राम सिंह जेठा, मान सिंह बनौल बताते हैं कि तीन पहाड़ी पार कर बलुवाकोट से खाने की सामग्री ढोकर लानी पड़ रही है। पीठ पर गैस सिलेंडर लादे धारचूला निवासी बिसमती कहती हैं कि गैस सिलेंडर के आने की सूचना मिली है, बलुवाकोट जा रहे हैं। क्या करें, जब हमारी किस्मत ही ऐसी है। गर्भवती महिला को यहां से पिथौरागढ़ जा रही थी। 83 साल के धरम सिंह हांफते हुए कहते हैं कि उम्र के इस पड़ाव में यह झेलना पड़ रहा है। पहाड़ पार करते समय पसीने से तरबतर लोग सिर व आंखों में जलन की समस्या की शिकायत भी कर रहे हैं। हालांकि, ग्रिफ सड़क बनाने में जुटा है। लेकिन यह कार्य कब पूरा होगा, और लोग की दिनचर्या पटरी पर आएगी। जल्द इसकी उम्मीद नहीं नजर आ रही है।

Sunday, June 9, 2013

तीसरे विकल्प के सपने में उत्तराखंड

गणेश जोशी

             मेरे दिमाग में आया कि क्यों न राज ठाकरे के महाराष्ट नवनिर्माण सेना की तरह उत्तराखंड नवनिर्माण सेना बना लूं। फिर कहते फिरूंगूा कि उत्तराखंड की राजनीति का तीसरा विकल्प बना। पिछले कुछ वर्षों से 10860292 आबादी व 70 विधानसभा क्षेत्र और पांच लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तराखंड में छोटे-छोटे अस्तित्वहीन दल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। सभी कहते हैं कि हम सुशासन देंगे। भ्रष्टाचार दूर करेंगे। जल, जंगल व जमीन की हिफाजत करेंगे। रोजगार की व्यवस्था करेंगे। राज्य को पर्यटन के क्षेत्र में विकसित करेंगे। बिजली, पानी, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएंगे। राज्य को मॉडल स्टेट बनाएंगे। सीमांत क्षेत्र सुरक्षित रहें, इस पर पूरा ध्यान दिया जाएगा। गांव से लेकर शहर का विकास जमीनी स्तर पर करेंगे। इसके साथ ही भाजपा व कांग्रेस की सरकारों पर भडास निकालते रहेंगे। कहेंगे, भाजपा व कांग्रेस की सरकार ने भारत के 27 वें राज्य उत्तराखंड को विकास नहीं विनाश की ओ ले गए। जहां लोगों में निराशा, हताशा व आक्रोश है। अब जनता हम पर विश्वास करेगी। जनता सब समझ गई है। उसे कौन कैसे लूट रहा है? ऐस कहने वाले में राज्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल थी। राज्य बनने से पहले यह दल कुमाउ व गढवाल को एक सूत्र में बांधने, राजधानी को गैरसैंण बनाने, पहाड के विकास को लेकर सजग थी लेकिन इस दल के अति महत्वाकांक्षी व पदलोलुप नेताओं में रार की वजह से यह बिखर गई। कभी चार तो कभी तीन फिर अब एक विधायक इस दल से चुना गया है। इस समय तो इस पार्टी के हालात बयां करने में शर्म महसूस होती है। यह दल अब पूरी तरह रसातल में पहुंच गया है। फिर भी कहते फिरते हैं, हम तीसरे विकल्प के रूप में उभर रहे हैं, पता नहीं कहां उभर रहे हैं। मीडिया के समक्ष ऐसा कहने में बेशर्म नेताओं को जरा सा भी संकोच नहीं होता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति के बादशाह समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी भी राज्य में तीसरे विकल्प की बात करती हैं लेकिन बसपा के कुछ सीटों को छोडकर सपा तो खाता भी नहीं खोल सकी है। इसके साथ ही उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखंड लोकवाहिनी, भाकपा माले, उत्तराखंड रक्षा मोर्चा आदि ंिचदी दलों के चंद नुमाइंदे भी तीसरे विकल्प की हुंकार भरते हुए दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में देवभूमि उत्तराखंड का विकास होगा या विनाश, फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन वर्तमान में जिस तरह के राजनीतिक हालात चल रहे हैं, इससे बेहतर व सुनहरे भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

Saturday, June 8, 2013

विसंगतियों से निकले हकीकत का भारत


  गणेश जोशी

   "यदि राजशक्ति के केन्द्र में अन्याय होगा, तब तो सारा राष्ट अन्याय के खेल का मैदान ही बन जाएगा।" जयशंकर प्रसाद का कहा हुआ यह कथन आज की केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए सटीक बैठती है। भ्रष्टाचार की बात करते-करते हम सभी थक गए और यह शब्द सुनते-सुनते पक गए। कथित बुद्धिजीवियों ने तो इसे शिष्टाचार मान लिया है। खैर, जो भी हो जिस तरह का तंत्र भारत में विकसित हो रहा है, यह देशहित में नहीं नजर आ रहा है। कांग्रेस को सत्ता में बने रहने का भले ही बेहतर अनुभव हो लेकिन देशहित के लिए किए जा रहे कार्यों को लेकर अभी तक परिपक्वता नहीं दिखती। अगर परिपक्वता होती तो हमारे देश में अभी तक कुपोषण, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, निरक्षरता, गरीबी, माफियाराज, गुंडागर्दी, माओवाद, नक्सलवाद, आतंकवाद व देश व विदेश में जमा कालाधन जैसे मामले इतने बडे स्तर पर नहीं होते। इतने समय तक अगर हमारे देश में तमाम समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं तो इसका दोष हम किसे दें, कौन इसके लिए जिम्मेदार है, अब किसे आगे आना होगा। अन्ना हजारे की हुंकार व अरविंद केजरीवाल के आंदोलन से हम कुछ करेंगे या फिर यह मामले भी इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएंगे। हमारे शीर्ष स्तर से ही अन्याय का ख्ेाल खेला जा रहा है तो हम नीचे बेहतरी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के लिखे कोटेशन "हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा" हर जगह दिख जाता है। फिर भी हम भारत के नागरिक होने के नाते एक ऐसे भारत देश का सपना संजोते रहते हैं, जहा शांति हो, हर व्यक्ति रोजगार से जुडा हो, विविधता में एकता के नारे को हकीकत में साकार होता दिख रहे हों। आपसी प्रेम, भाइचारे की बात को धार्मिंक ग्रंथों की पन्नों से बाहर समाज में देख रहे हों, एकता, अखंडता, संप्रभुता, मौलिक अधिकार व कर्तव्यों की बातें भी संविधान की धाराओं तक सीमित न होकर भारत में रामराज्य के सपने को साकार करता दिख रहा हो, तो हम फिर से विश्व गुरू, सोने की चिडिया, विकसित राष्ट आदि कहलाने के योग्य व हकदार हो जाएंगे।

Thursday, June 6, 2013

उत्तराखंड राजनीति का शर्मनाक नाटक


गणेश जोशी
            
उत्तराखंड के राजनीतिक हालात बेहद खराब हो गए हैं। सरकार को एक साल हो गया है, विकास के नाम पर महज घोषणाएं हो रही हैं। आम जन परेशान हैं। सबसे अधिक खराब स्थिति यहां की व्यवस्था ने कर दी है। इस समय सत्तारूढ दल के आधा दर्जन विधायक अपनी ही सरकार पर विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। शुरूआत कर दी है सीमांत क्षेत्र धारचूला के विधायक हरीश धामी ने, इनके सुर में सुर और कई विधायक भी मिलाने लगे हैं। विधायकों का विकास के नाम पर इस तरह की आवाज बुलंद कराना सराहनीय है। यह विधायक खुलेआम कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सिर्फ घोषणा कर रहे हैं, जमीनी हकीकत में विकास कहीं नहीं हो रहा है। यह पूरी तरह सत्य है। ऐसा केवल छह-सात विधायकों के क्षेत्र में नहीं हो रहा है, जहां दिग्गज कैबिनेट मंत्री हैं, वहां भी विकास की बेहतर आस नहीं की जा सकती है। राज्य में पानी के लिए हैंडपंप लगा दिए, नल लगा दिए लेकिन पानी की बंूद नहीं टपक रही हैै। अस्पतालों के लिए भवन बना दिए डाक्टर नहीं हैं। विद्यालय भवन बना दिए लेकिन शिक्षक नहीं हैं। यहां तक कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने सितारंगज विधानसभा क्षेत्र में राजकीय महाविद्यालय खोलने की घोषणा की, जमीन आवंटन की प्रक्रिया भी हुई। कालेज को 2013-14 सत्र से शुरू करने का दावा किया गया है लेकिन यहां पर प्राचार्य से लेकर अन्य फैकल्टी के पद तक सृजित नहीं है। प्रदेश के हालात चिंतनीय है। अन्य विकास की बात करें तो मानसून ने दस्तक देना शुरू कर दिया है। बाढ राहत के लिए तमाम योजनाओं के लिए बजट दो साल से रिलीज ही नहीं हुआ है। इसके लिए प्रयास करने के लिए न ही समय राज्य सरकार को है और न ही राज्य से केन्द्र में कैबिनेट मंत्री हरीश रावत को है। बेहद शर्मनाक स्थिति है। केवल बहुगुणा फैक्टर व हरीश फैक्टर के नाम पर राज्य में विकास नहीं हो सकता है।
इस समय जो राजनीतिक हालात बने हुए हैं, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी कई बार यही विधायक बारी-बारी से राज्य सरकार पर विकास की उपेक्षा का आरोप लगाकर इस तरह का हाइप्रोफाइल नाटक कर चुके हैं। इसके पीछे अगर असल विकास का मकसद है तो निश्चित तौर पर राज्य हित के लिए हैं लेकिन हकीकत में कभी नेता ऐसा करते नहीं हैं। या नहीं कर रहे हैं। अगर अपने हित को साधने के लिए, पद लोलुपता या अन्य कारणों के चलते ऐसा नाटक रचा जा रहा है तो यह शर्मनाक और चिंतनीय है। विकास के इन मामलों विपक्ष में लडाई के लिए विपक्ष को भी आगे आना चाहिए, जो केवल मिशन 2014 के सपने संजो रही है। सबसे सुखद यह है कि विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने राज्य में भ्र्रष्टाचार और विकास के नाम पर जिस तरह की बातें समाज में प्रचारित कर दी हैं, इससे पूरी सरकार सकते हैं आ गई है। कुंजवाल नाराज विधायकों की बयानों का भी समर्थन कर रहे हैं। फिलहाल राज्य के जो भी राजनीतिक हालात बने हुए हैं, इसे किसी भी दृष्टिकोण से जायज नहीं ठहराया जा सकता है, इस तरह की नाटकबाजी, बयानबाजी, गुटबाजी से राज्य के उज्ज्वल भविष्य की कामना नहीं की जा सकती है। 

Tuesday, March 12, 2013

जब चीर के हरण पर बदल जाता होली का जश्न...



इस चीर को आसपास के गांवों में घर-घर घुमाया जाता है। इस दौरान चीर के चोरी होने का डर रहता है। जिस गांव में चीर बांधने की परंपरा नहीं रही है, वे चीर चुराने के लिए दूसरे गांवों में जाते हैं। कई बार दोनों गांववालों के बीच संघर्ष तक की नौबत आ जाती है।



गणेश जोशी
सफेद कुर्ता-पायजामा और टोपी पहने हुए होल्यार ढोल, दमाऊ व मजीरे की धुन पर होली के रंग में मदमस्त होकर नाचने का अंदाज देखते ही बनता है। कुमाऊं की अनूठी होली में 'चीर हरण' की परंपरा होली के जश्न के माहौल को ही बदल देती है। चीर बंधन और इसकी पूजा से होली की शुरुआत तो होती है, लेकिन इसके पीछे अद्भुत परंपरा रही है कि अगर किसी गांव में चीर नहीं बांधी जाती थी तो वे दूसरे गांव की चीर को चुरा लेते थे। चुराते पकड़े जाने पर संघर्ष तक की नौबत आ जाती थी, लेकिन समय के साथ यह परंपरा गुजरे जमाने की बात होती जा रही है।
चंदवंशीय सामंतों के समय से आरंभ कुमाऊंनी होली की इस अजीबोगरीब परंपरा के पीछे वैसे कोई बड़ा कारण नहीं नजर आता है, लेकिन जिस तरह की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। आज के दौर में भी कुमाऊं के दूरस्थ गांवों में चीर को चुराने की दिलचस्प परंपरा देखने को मिलती है। वैसे एक दशक पहले तक इस परंपरा का बागेश्वर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ व चंपावत के अधिकांश गांवों के लोगों में जितना अधिक उत्साह था, अब आधुनिकीकरण व पाश्चात्यीकरण से प्रभावित नई पीढ़ी के प्रति इसका क्रेज कम होने लगा है।
जिन गांवों में तत्कालीन सामंतों ने ध्वजा दी थी, वे लोग चीर बांधते थे। आमलकी एकादशी को चीर बांधी जाती है। चीर किसी सार्वजनिक स्थान या मंदिर प्रांगण में बांधी जाती है। बांस अथवा चीड़ के लंबे बांस से इसे बनाया जाता है। इसे चीरवृक्ष या चीर आरोहण कहा जाता है। पुरोहित के मंत्रोच्चारण के साथ गांव के लोगों की ओर से दिए गए सफेद व लाल कपड़े काष्ठ पर बांधने की परंपरा रही है। इसके बाद इस चीर में अबीर व गुलाल छिड़का जाता है। इस चीर के चारों ओर खड़े होकर खड़ी होली गाई जाती है। होल्यार विशेष मुद्राओं में हस्त-पादों का संचालन करते हैं। इस दौरान राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं से संबंधित होली गीतों का गायन करते हैं। इस चीर को आसपास के गांवों में घर-घर तक घुमाया जाता है। इस दौरान चीर के चोरी होने का डर रहता है। जिस गांव में चीर बांधने की परंपरा नहीं रही है, वे चीर चुराने के लिए दूसरे गांवों में जाते हैं। कई बार दोनों गांववालों के बीच संघर्ष तक की नौबत आ जाती है। जिस गांव से चीर का हरण हो जाता है, इसे अमंगल समझा जाता है। फिर इस गांव के लोग बिना चीर के ही होली मनाते हैं। इस चीर के सुरक्षा के लिए चांदनी रातों में किसी एक के घर में होली गाई जाती है। पूर्णिमा की रात को शुभ-मुहूर्त में चीर का दहन कर दिया जाता है। इस पर बांधे गए कपड़े की छीना-झपटी भी होती है। इस कपड़े के टुकड़े को लोग अपने शर्ट पर बांधते हैं।

Sunday, March 10, 2013

पितृसत्तात्मक समाज से उपजी सोच भी जिम्मेदार



कुछ महिलाओं ने जहां कन्या भ्रूण हत्या के लिएपितृसत्तात्मक समाज, पुरुष की सामंतवादी सोच, वंश बढ़ाने के लिए पुत्र की चाह होने को जिम्मेदार माना तो अधिकांश महिलाओं ने स्वयं महिला को ही इसके लिए दोषी माना।




गणेश जोशी
    महिलाएं अब असहाय नहीं रह गई हैं। निरक्षर नहीं हैं। चांद तक पहुंच रही हैं। कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति, चिकित्सा हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर रही हैं। 21वीं सदी के आधुनिक व तकनीक युग में भी कन्या भ्रूण हत्या जैसी तुच्छ मानसिकता समाज के लिए अभिशाप बनकर उभर रही है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दैनिक जागरण की ओर से आयोजित परिचर्चा में महिलाओं ने तीखी टिप्पणी की। इस गंभीर मुद्दे के लिए कई महिलाओं ने स्वयं स्त्री को जिम्मेदार ठहराया तो कुछ महिलाओं ने पितृसत्तात्मक समाज पर दोष मढ़ा। महिलाओं ने मंथन करते हुए सबसे अधिक जोर महिला व पुरुषों की 'सोच' व 'मानसिकता' को दिया.
      महिलाओं पर बढ़ रहे अपराध में बढ़ोत्तरी के लिए परिवार की ही भूमिका नहीं बल्कि बिगड़ते सामाजिक परिवेश को भी जिम्मेदार माना गया। इसके लिए हमारे पाठ्य पुस्तकों से लेकर समाज से हृास हो रही नैतिक शिक्षा की भूमिका पर भी महिलाओं ने सवाल खड़े किए। महिलाओं के विमर्श से उभरा कि बचपन से ही अगर हम अपने बेटे को बेटियों की तरह ही संस्कारवान बने रहने की शिक्षा नहीं देंगे तो परिणाम हमारे सामने बढ़ते महिला अपराधों के तौर पर दिखते रहेंगे। परिचर्चा के दौरान महिलाएं सबसे अधिक कन्या भ्रूण हत्या के मामले में आक्रोशित दिखी। विभिन्न संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़ी महिलाओं ने लिंगानुपात को बैलेंस करने पर सबसे अधिक जोर दिया। इसके कारणों पर कुछ महिलाओं ने जहां पितृसत्तात्मक समाज, पुरुष की सामंतवादी सोच, वंश बढ़ाने के लिए पुत्र की चाह होने को जिम्मेदार माना तो अधिकांश महिलाओं ने स्वयं महिला को ही इसके लिए दोषी माना। ऑल इंडिया वीमेंन्स कान्फ्रेंस की पूर्व अध्यक्ष कुसुम दिगारी व मीडिया प्रभारी विद्या महतोलिया ने तो पुरुष समाज व सामाजिक सोच को इसके लिए बड़ा कारण बताया। अधिकांश महिलाओं का तर्क इस बात पर रहा है कि जब महिला स्वयं को मजबूत कर लेंगी, साक्षर होंगी, आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, स्वयं स्टेंड लेने में समर्थ होंगी, सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत रखेंगी, अभिव्यक्ति के लिए स्वाभिमान के साथ आगे आयेंगी तो वास्तविक नारी सशक्कतीकरण की परिभाषा को चरितार्थ कर सकेंगी। शहर की प्रसिद्ध स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ व कवयित्री डा. श्रद्धा प्रधान सयाना ने दो टूक कहा कि कन्या भ्रूण हत्या नहीं होनी चाहिए। स्त्री का सम्मान बहुत ऊंचा है। अगर स्त्री दृढ़ संकल्प लेती है तो कन्या भ्रूण हत्या को रोका जा सकता है।

Saturday, February 23, 2013

व्यंग्य, बेबाकी और संवेदनशीलता



उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।



सामाजिक व व्यवस्थागत विसंगतियों पर प्रहार, पहाड़ी जीवन में आ रहे क्षरण पर चिंता, पलायन, मनुष्यता का पतन वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार आनंद बल्लभ उप्रेती की लेखनी में झलकता रहा। राजनैतिक हृास, भटकाव व सांस्कृतिक अवमूल्यन के साथ ही ज्वलंत विषयों पर बेबाकी से संवदेनशीलता दर्शाते हुए व्यंगात्मक अंदाज में लिखी उनकी कहानियां और लेख हमेशा चर्चा का विषय बनी रही। शुक्रवार को उनकी असमय मौत ने पत्रकारिता व साहित्य जगत को सूना कर दिया।
पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट ब्लाक के गांव कुंजनपुर में 21 मई 1944 में जन्मे आनंद बल्लभ उप्रेती की प्राथमिक शिक्षा गांव में और उच्च शिक्षा अल्मोड़ा व हल्द्वानी में हुई थी। शिक्षक से पत्रकारिता के क्षेत्र में जाना उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था। पत्रकारिता में सरिता 1966, संदेश सागर 1967 पत्रिकाओं से शुरुआत की। स्वर्गीय दुर्गा सिंह मर्तोलिया के साथ मिलकर 1978 से पहले साप्ताहिक पिघलता व्यंग्य, बेबाकी और संवेदनशीलता


उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।


सामाजिक व व्यवस्थागत विसंगतियों पर प्रहार, पहाड़ी जीवन में आ रहे क्षरण पर चिंता, पलायन, मनुष्यता का पतन वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार आनंद बल्लभ उप्रेती की लेखनी में झलकता रहा। राजनैतिक हृास, भटकाव व सांस्कृतिक अवमूल्यन के साथ ही ज्वलंत विषयों पर बेबाकी से संवदेनशीलता दर्शाते हुए व्यंगात्मक अंदाज में लिखी उनकी कहानियां और लेख हमेशा चर्चा का विषय बनी रही। शुक्रवार को उनकी असमय मौत ने पत्रकारिता व साहित्य जगत को सूना कर दिया।
पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट ब्लाक के गांव कुंजनपुर में 21 मई 1944 में जन्मे आनंद बल्लभ उप्रेती की प्राथमिक शिक्षा गांव में और उच्च शिक्षा अल्मोड़ा व हल्द्वानी में हुई थी। शिक्षक से पत्रकारिता के क्षेत्र में जाना उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था। पत्रकारिता में सरिता 1966, संदेश सागर 1967 पत्रिकाओं से शुरुआत की। स्वर्गीय दुर्गा सिंह मर्तोलिया के साथ मिलकर 1978 से पहले साप्ताहिक पिघलता हिमालय समाचार पत्र निकाला। 1980 में एक वर्ष दैनिक समाचार पत्र के रुप में निकाला इसके बाद से अब तक वह साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक रहे। नवभारत टाइम्स, नैनीताल समाचार, दिनमान के संवाददाता भी रहे। उनकी चर्चित कहानी संग्रह 'आदमी की बू' व 'घौंसला में उनकी' पत्रकारीय तीक्ष्ण दृष्टि की झलक मिलती है। उत्तराखंड आंदोलन के संदर्भ में लिखी पुस्तक 'उत्तराखंड आंदोलन में गधों की भूमिका' तमाम राजनेताओं व मुद्दों पर व्यंग्य पर आधारित है। 'राजजात के बहाने' पुस्तक के लिए उन्हें पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार की ओर से राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से नवाजा गया था। उत्तराखंड सरकार की ओर से सारस्वत साधना सम्मान समेत कई अन्य पुरस्कार उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। एक सप्ताह पहले 'हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे' से व 'नंदा राजजात के बहाने' का द्वितीय संस्करण का विमोचन हुआ था। उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। 22 फरवरी 2013 को उनके निधन से साहित्य व पत्रकारिता जगत में सन्नाटा पसर गया।हिमालय समाचार पत्र निकाला। 1980 में एक वर्ष दैनिक समाचार पत्र के रुप में निकाला इसके बाद से अब तक वह साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक रहे। नवभारत टाइम्स, नैनीताल समाचार, दिनमान के संवाददाता भी रहे। उनकी चर्चित कहानी संग्रह 'आदमी की बू' व 'घौंसला में उनकी' पत्रकारीय तीक्ष्ण दृष्टि की झलक मिलती है। उत्तराखंड आंदोलन के संदर्भ में लिखी पुस्तक 'उत्तराखंड आंदोलन में गधों की भूमिका' तमाम राजनेताओं व मुद्दों पर व्यंग्य पर आधारित है। 'राजजात के बहाने' पुस्तक के लिए उन्हें पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार की ओर से राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से नवाजा गया था। उत्तराखंड सरकार की ओर से सारस्वत साधना सम्मान समेत कई अन्य पुरस्कार उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। एक सप्ताह पहले 'हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे' से व 'नंदा राजजात के बहाने' का द्वितीय संस्करण का विमोचन हुआ था। उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। 22 फरवरी 2013 को उनके निधन से साहित्य व पत्रकारिता जगत में सन्नाटा पसर गया।