Sunday, February 20, 2011

अस्तित्व को छटपटाती उत्तराखंड की बोलियां


    जिस तरह से राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बढ़ रहा है और बाजार पर वैश्वीकरण व पाश्चात्यीकरण का प्रभुत्व हो गया है, उससे उत्तराखंड की बोलियां भी अपने अस्तित्व को छटपटाने लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कहा है कि कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें लिपिबद्ध करने के लिए राज्य गठन के 10 वर्षों में भी सरकार ने ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी।
अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस को लेकर उत्तराखंड से जुड़े चंद लोग अपनी मातृ भाषा कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी को बचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स में माहौल बनाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में अभी तक इन बोलियों की कोई लिपि तक नहीं बन सकी है। स्थिति यह है कि यह बोलियां अपने अस्तित्व के लिए ही कसमसा रही हैं। चंद कवियों, लेखकों व ब्लागरों के जरिये इन बोलियों को सहेजने के साथ ही युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इसमें राज्य सरकार कोई विशेष पहल करती हुई नजर नहीं आ रही है। हालांकि उत्तराखंड में दर्जनों बोलियां हैं, जिनमें कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी प्रमुख हैं। इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया जा रहा है। इनमें से किसी भी बोली को लिपिबद्ध नहीं किया गया है। धाद संस्था इन बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। 25 वर्ष पूर्व स्थापित संस्था ने पत्रिका निकालकर कार्य शुरू किया था। दूर-दराज क्षेत्रों में गढ़वाली व कुमाऊंनी कवि सम्मेलनों का आयोजन किया, जो अब भी जारी है। धाद के समन्वयक तन्मय ममगईं बताते हैं कि इसके लिए समय-समय पर कवि सम्मेलन व भाषा पर विमर्श किया जा रहा है।
वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही कहते हैं कि क्षेत्रीयता को ध्यान में रखते हुए सरकार का दायित्व बन जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं को संरक्षित करने में योगदान दे। उत्तराखंड में थारुों, वनरावतों व भोटिया जनजातियों की बोलियां अस्तित्व में नहीं हैं तो इसके लिए भी दोषी राज्य सरकार है। संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के बजाय कुमाऊंनी व गढ़वाली को द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिये।  अनुवादक व कवि अशोक पाण्डे कहते हैं कि सबसे पहले कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के अलावा लोग भी उदासीन हैं। यही नहंी अपनी बोली को सार्वजनिक रूप में बोलने में लोग  शर्म महसूस करते हैं।
साहित्यकार दिनेश कर्नाटक कहते हैं कि मातृभाषा को शिक्षा के साथ जोड़ा जाना चाहिये। अगर बच्चों को स्कूल में इन भाषाओं को पढ़ाया जाएगा तो इनका भविष्य भी उज्ज्वल होगा।
कुमाऊंनी कवि जगदीश जोशी कहते हैं कि कुमाऊंनी ही नहीं हिन्दी पर ही संकट दिख रहा है। इसे संरक्षित करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
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वर्ष 2000 से मनाया जाता है यह दिवस
  भाषाई स्वीकृति के लिए पहला आंदोलन ढाका में बंगला भाषा के लिए हुआ था। लोग सड़कों पर उतर आये थे। इसमें कई प्रदर्शनकारी शहीद हो गये थे। इसको ध्यान में रखते हुए यूनेस्को महासभा ने नवंबर 1999 में विश्व की उन भाषाओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए वर्ष 2000 से प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाने का निश्चय किया गया।

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